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पिंडनियुक्ति
१९३. उद्गम के सोलह दोष गृहस्थ से समुत्थित जानने चाहिए तथा उत्पादन के दोष साधु से समुत्थित जानने चाहिए। १९४. उत्पादना चार प्रकार ही होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य-उत्पादना के तीन प्रकार तथा भाव-उत्पादना के सोलह प्रकार हैं।' १९४/१. औपयाचितक रूप से केश, रोम युक्त पुरुष, घोड़े या बीज के द्वारा पुत्र, अश्व एवं वृक्ष-वल्लि आदि का उत्पादन सचित्त द्रव्य उत्पादना है। १९४/२. कनक, रजत आदि यथेष्ट धातुओं से इच्छानुरूप (आभूषण आदि) की उत्पत्ति अचित्तद्रव्यउत्पादना है। दास, दासी आदि को वेतन आदि देकर आत्मीय बनाना मिश्रद्रव्यउत्पादना है। १९४/३. भावउत्पादना के दो प्रकार हैं-प्रशस्तभावउत्पादना तथा अप्रशस्तभावउत्पादना। क्रोध आदि से युक्त धात्रीत्व आदि की उत्पादना अप्रशस्तभावउत्पादना है तथा ज्ञान आदि की उत्पादना प्रशस्तभावउत्पादना
१०. लोभ
१९५, १९६. उत्पादना के सोलह दोष हैं१. धात्री
९. माया २. दूती ३. निमित्त
११. पूर्व संस्तव, पश्चात् संस्तव ४. आजीविका
१२. विद्या ५. वनीपक
१३. मंत्र ६. चिकित्सा
१४. चूर्ण ७. क्रोध
१५. योग ८. मान
१६. मूलकर्म १९७. धात्री के पांच प्रकार हैं
१. क्षीरधात्री - स्तनपान कराने वाली। २. मज्जनधात्री - स्नान कराने वाली। ३. मंडनधात्री – बालक का मंडन-विभूषा करने वाली।
१. भाव-उत्पादन के धात्री, दूती आदि १६ भेद हैं, देखें गा. १९५, १९६ का अनुवाद। २. किसी व्यक्ति के किसी भी उपाय से पुत्र न होने पर देवता की मनौती-औपयाचितक रूप से ऋतुकाल में लोमश पुरुष द्वारा
संयोग कराकर पुत्र आदि की उत्पत्ति करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है। इसी प्रकार भाड़ा देकर अन्य व्यक्ति के घोड़े का अपनी घोड़ी से संयोग कराकर घोड़ा आदि पैदा करना तथा बीजारोपण करके पानी के सिंचन से वृक्ष आदि पैदा करना सचित्त द्रव्य उत्पादना है (म प. १२०)।
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