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पिंडनियुक्ति
१८८/१. यावदर्थिक अध्यवपूरक में जितना अधिक पकाया गया है, उसे अलग करने पर या उस पात्र से बाहर निकालने पर शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय है। यदि कण आदि की गणना के बिना अंदाज से उतना आहार कार्पटिकों को दे दिया जाए तो शेष आहार साधु के लिए कल्पनीय होता है। १८९. सोलह भेद वाले उद्गम दोष के दो प्रकार हैं- पहला विशोधिकोटिक और दूसरा है अविशोधिकोटिक। १९०. आधाकर्म, औद्देशिक के अन्तिम तीन भेद, पूति', मिश्रजात, बादरप्राभृतिका, अध्यवपूरक के अन्तिम दो भेद-स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र-ये अविशोधि कोटि उद्गम दोष हैं। १९१. उद्गमदोष रूप अविशोधिकोटिक आहार के अवयव से स्पृष्ट, लेप अथवा अलेप से युक्त पात्र, जो तीन कल्पों से परिमार्जित नहीं है, उसमें आहार लेना पूतिदोष दुष्ट आहार है। इसी प्रकार काजिक, अवश्रावण, चाउलोदक से संस्पृष्ट पात्र या आहार भी पूतिदोष दुष्ट होता है।" १९२. शेष उद्गमदोष विशोधिकोटिक होते हैं। शुद्ध भक्त-पान के.साथ यदि विशोधिकोटिक उद्गम का भक्त-पान मिल जाए तो उसका यथाशक्ति परित्याग कर देना चाहिए। यदि मिश्रित भक्त-पान अलक्षित हो, द्रव के साथ मिल गया हो तो पूरे भक्त-पान का परिष्ठापन कर देना चाहिए। आहार अलग करने पर भी भक्त-पान के कुछ सूक्ष्म अवयव पात्र में लगे हों तो भी उस अकृतकल्प' पात्र में दूसरा भक्त-पान लेना कल्प्य है। १९२/१. विवेक-परित्याग के चार प्रकार हैं-द्रव्यविवेक, क्षेत्रविवेक, कालविवेक तथा भावविवेक। जिस द्रव्य का परित्याग किया जाता है, वह द्रव्यविवेक है। जिस क्षेत्र में परित्याग किया जाता है, वह क्षेत्रविवेक है। दोष दुष्ट आहार को जानकर तत्काल परित्याग कर दिया जाता है, वह कालविवेक है। जो मुनि अशठ-राग-द्वेष रहित होकर दोषदुष्ट आहार आदि को देखकर उसका परित्याग कर देता है, वह भावविवेक है।
१. पूति दोष में आहारपूति का समावेश होता है (पिंप्र टी प. ४९)। २. लेप का अर्थ-तक्र, दूध आदि तरल पदार्थ से युक्त भक्त। ३. अलेप-वल्ल, चने आदि से संस्पृष्ट भक्त। भाष्यकार इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि जैसे लोक-व्यवहार में शुष्क
अशचि पर भी भाजन या वस्तु को रखने पर उसे धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने मात्र से पात्र का कल्पत्रय से शोधन आवश्यक है। जब अलेपकृद् का ग्रहण होने पर भी कल्पत्रय अनिवार्य है तो फिर
तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या? (पिभा २८, २९)। ४. इस गाथा की व्याख्या में तीन भाष्य गाथाएं (पिभा २८-३०) हैं। गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि जो साधु के निमित्त आहार बनाया जाता है, वही आधाकर्म होता है। शेष अवश्रावण (मांड), काञ्जिक आदि पूति दोष से दुष्ट नहीं होते लेकिन यह मान्यता सही नहीं है। नियुक्तिकार का आशय है कि साधु के लिए बनाए गए ओदन से यदि काञिक, अवश्रावण आदि बनाया जाता है तो वह उसका अवयव
होने से आधाकर्म है अत: काञ्जिक, अवश्रावण और चाउलोदग आदि से संस्पृष्ट आहार पूति दोष युक्त है (मवृ प. ११७)। ५. कृतकल्प या कल्पत्रय की व्याख्या हेतु देखें गा. ११७/३ का टिप्पण।
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