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पिंडनियुक्ति
गए हैं?' 'स्नान करने गए हैं' ऐसा कहने पर (लोलुप) मुनि बोला-'तुम दूसरों के मोदक से भी पुण्य का उपार्जन नहीं करते।' यदि ३२ मोदक मुझे दोगे तो भी तुम्हारे भाग में एक ही मोदक आएगा। दान अल्पव्यय
और बहुआय वाला होता है, यह बात यदि जानते हो तो मुझे सारे लड्डु दे दो। साधु उन सारे मोदकों को प्राप्त करके जाने लगा। रास्ते में उन युवकों ने पूछा-'आपने आज क्या प्राप्त किया है ?' मुनि ने कहा-'कुछ नहीं।' भारी झोली देखकर युवकों ने कहा-'हम झोली देखेंगे।' उन्होंने बलात् झोली देखी। भय के कारण नियुक्त रक्षक ने कहा–'मैंने इन्हें लड्ड नहीं दिए हैं।' युवकों ने कहा-'तुम्हारे पास चोरी का माल है अतः तुम चोर हो।' युवकों ने उनके कपड़े पकड़कर खींचे। मुनि का साधुवेश एवं उपकरण लेकर उसे पच्छाकड़ (गृहस्थ) बना दिया। राजकुल में पूछने पर लज्जा से साधु मौन रहा अतः उसका देशनिष्कासन कर दिया गया। इस प्रकार अप्रभु से लेने में दोष है, प्रभु के द्वारा देने पर वह आहार आदि ग्राह्य है। १८१. इसी प्रकार यंत्र, संखडि-विवाहभोज, दूध तथा दुकान आदि में सामान्य अनिसृष्ट-अननुज्ञात तीर्थंकरों द्वारा निषिद्ध है। स्वामी द्वारा अनुज्ञात वस्तु कल्पनीय है। १८१/१. अब चोल्लक' भोजन विषयक द्वार है। इसके बारे में बहुवक्तव्य है अतः इसकी व्याख्या बाद में की है। गुरु ने चोल्लक के दो भेद वर्णित किए हैं-१. स्वामी विषयक २. हस्ती विषयक। १८२. चोल्लक दो प्रकार का होता है-छिन्न और अच्छिन्न। अच्छिन्न भी दो प्रकार का होता है१. निसृष्ट २. अनिसृष्ट' । छिन्न चोल्लक में स्वामी के द्वारा देय वस्तु कल्पनीय है। १८३. छिन्न चोल्लक (भोजन) जिसके निमित्त से दिया गया है, वह यदि साधु को देता है तो वह मूल स्वामी के द्वारा दृष्ट हो या अदृष्ट, साधु के लिए कल्पनीय है। इसी प्रकार अच्छिन्न चुल्लक भी कल्प्य है। इसके विपरीत जो छिन्न या अच्छिन्न स्वामी के द्वारा अननुज्ञात है, वह अदृष्ट हो या दृष्ट, साधु के लिए अकल्प्य है।
१. दीक्षा लेने के बाद जो गृहस्थ जीवन जीता है, वह पच्छाकड़ कहलाता है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २५।। ३. द्वारगाथा १७८ में 'लड्डुग' के बाद 'चोल्लक द्वार' है अतः ग्रंथकार कहते हैं कि १८० वीं गाथा के बाद गा. १८१ में
'चोल्लक द्वार' की व्याख्या करनी थी लेकिन उसमें यंत्र, संखडि आदि अग्रिम द्वारों के बारे में एक साथ सामान्य कथन किया गया है। 'चोल्लक द्वार' की ग्रंथकार को विस्तृत व्याख्या करनी थी अतः इसे क्रम की दृष्टि से बाद में (गा. १८१/१)
दिया गया है। ४. कोई कौटुम्बिक क्षेत्रगत हालिकों के लिए किसी से भोजन बनवाता है। यदि अलग-अलग पात्र में प्रत्येक हालिक के लिए
भोजन भेजता है तो वह छिन्न कहलाता है। जब वह सब हालिकों के लिए एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह
अच्छिन्न कहलाता है। इसी प्रकार उद्यापनिका आदि में भी छिन्न-अच्छिन्न चुल्लक समझना चाहिए (मवृ प ११४)। ५. हालिकों के लिए भेजे गए सामूहिक चुल्लक को साधु के दान के लिए भी भेजा, वह निसृष्ट तथा दूसरा अनिसृष्ट
कहलाता है (मवृ प. ११४)। ६. जिसके निमित्त से छिन्न किया गया है, यदि वह दाता स्वयं उस छिन्न चुल्लक को देना चाहे तो वह कल्पनीय है।
अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें, तब वह वस्तु साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है (मवृ प ११४)।
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