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पिंडनियुक्ति
१७०. दर्द्दर', शिला, सोपान आदि पर साधु के आगमन से पूर्व ही गृहस्वामी ऊपर चढ़ा हुआ हो, वह हाथ लंबा कर साधु के पात्र में दान दे तो यह अनुच्चोत्क्षिप्त है, ये सारे मालापहृत नहीं कहलाते। शेष सारे मालापहत होते हैं। १७१. जो मुनि पात्र पर दृष्टि रखता हुआ दाता के तिर्यग, दीर्घ और सीधे हाथ से वस्तु ग्रहण करता है, वह अनुच्चोत्क्षिप्त है, शेष सारा उच्चोत्क्षिप्त है। १७२. आच्छेद्य के तीन प्रकार हैं-प्रभुविषयक, स्वामिविषयक तथा स्तेनविषयक। भगवान् के द्वारा आच्छेद्य का निषेध होने के कारण श्रमणों के लिए उसका ग्रहण कल्पनीय नहीं है। १७३. गोपालविषयक, भृतकविषयक, दास-दासीविषयक, पुत्रविषयक, पुत्रीविषयक तथा पुत्रवधूविषयकये प्रभुविषयक आच्छेद्य हैं। इनके ये दोष हैं-अप्रीति, कलह, कुछ व्यक्ति प्रद्वेष करते हैं; जैसे-गोपालक का दृष्टांत। १७३/१. घर का मालिक प्रभु, ग्राम का मुखिया स्वामी तथा राज्य के अधिकारी कोतवाल आदि के द्वारा आच्छेद्य आहार नहीं लेना चाहिए। १७३/२. वारक के दिन ग्वाले से दूध को छीनकर स्वामी ने साधु को दे दिया। भाजन में दूध को कम देखकर भार्या क्रोधित हो गई और बच्चे रोने लगे। १७३/३. प्रतिकार की भावना से वह द्वेषपूर्वक साधु के पास गया। साधु ने उसका मनोगत भाव जानकर संलाप किया कि तुम्हारे स्वामी के आग्रह से दूध ग्रहण कर लिया। (अब तुम यह दूध वापस ले लो) गोपालक ने साधु को छोड़ दिया और कहा कि अब दुबारा आच्छेद्य आहार मत लेना। १७३/४. उपार्जित किए बिना कुछ भी नहीं मिलता। दासी भी भक्तपान के बिना उपभोग के लिए नहीं मिलती। आच्छेद्य आहार से स्वामी और सेवक में कभी प्रद्वेष हो सकता है तथा गोपाल के अंतराय कर्म बंधने में भी मुनि निमित्तभूत बन जाते हैं। १७४. कोई स्वामी अथवा स्वामी के भट मुनियों को देखकर उनके लिए अपने अधीनस्थ दरिद्र
१. मत् प. ११०; दईर: निरन्तरकाष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः-स्थायी रूप से रखी गई काष्ठ की सोपान-पंक्ति। २. टीकाकार ने इस गाथा की व्याख्या करते हुए कल्प्य और अकल्प्य विधि का स्पष्टीकरण किया है-पैर के नीचे मंचक
आदि देकर गवाक्ष में स्थित होकर बाहु फैलाकर जो कष्टपूर्वक भिक्षा दी जाए, वह साधु के लिए कल्पनीय नहीं है। भूमि पर स्वाभाविक रूप से खड़े होकर गवाक्ष से बाहु फैलाकर देना मालापहृत नहीं है अत: वह साधु के लिए कल्पनीय है (मवृ प ११०)। ३. अपने घर मात्र का नायक प्रभु कहलाता है। ४. ग्राम का नायक स्वामी कहलाता है। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.३, कथा सं. २४ ।
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