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अनुवाद
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१८४. स्वामी के द्वारा अनुज्ञात चोल्लक उनके द्वारा अदृष्ट होने पर भी कल्प्य है। हाथी का भोजन महावत के द्वारा अनुज्ञात होने पर भी अकल्प्य है। महावत के द्वारा देय भक्त यदि हाथी के द्वारा अदृष्ट है तो वह कल्पनीय है। १८५. अननुज्ञात राजपिण्ड और गजभक्त को ग्रहण करने से अंतराय और अदत्तादान आदि दोष लगते हैं। महावत के द्वारा प्रतिदिन दिए गए भोजन को देखकर हाथी साधु के उपाश्रय को तोड़ सकता है। १८६. अध्यवपूरक के तीन प्रकार हैं-स्वगृहयावदर्थिक मिश्र, स्वगृहसाधुमिश्र तथा स्वगृहपाषंडिमिश्र। यावदर्थिक साधु अथवा पाषंडी के आने से पूर्व स्वयं के लिए निष्पन्न होते हुए भोजन में इन तीनों के लिए अधिक रांधना अध्यवपूरक है। १८७. आदानकाल में तण्डुल, जल, पुष्प, फल, शाक तथा मसाला आदि के परिमाण-मात्रा में अंतर होता है, यही अध्यवतर और मिश्रजात में भेद है।' १८८. शुद्ध आहार आदि में यावदर्थिक मिश्र अध्यवपूरक आहार मिश्र हो जाए तो उसको उतनी मात्रा में निकाल देने मात्र से आहार की विशोधि हो जाती है। शुद्ध आहार आदि में यदि स्वगृहपाषंडिमिश्र और स्वगृहसाधुमिश्र पकाया हुआ आहार गिर जाता है तो सारा आहार पूति हो जाता है। विशोधि कोटिक यावदर्थिक अध्यवपूरक के भाग को निकाल देने पर अथवा उतना भाग पाषंडियों को दे देने पर शेष बचा हुआ आहार मुनियों के लिए कल्पनीय होता है लेकिन स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृह साधुमिश्र अध्यवपूरक आहार शेष बचने पर भी कल्पनीय नहीं होता।"
१. इस गाथा की व्याख्या हेतु देखें गा. १८५ का अनुवाद एवं टिप्पण। २. आदि शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि अपमान से खींचना तथा साधे वेष-परिवर्तन आदि दोष भी
उत्पन्न होते हैं। ३. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि राजा के द्वारा अननुज्ञात लेने पर कभी वह रुष्ट होकर महावत को
नौकरी से निकाल सकता है। साधु के कारण उसकी आजीविका का विच्छेद होता है अतः साधु को अंतराय का दोष लगता है। गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि महावत के द्वारा प्रतिदिन दान देते देखकर हाथी रुष्ट हो सकता है कि यह मुण्ड मेरे भोजन से प्रतिदिन ग्रहण करता है अतः वह उपाश्रय में उस साधु को देखकर उपाश्रय को भी तोड़ सकता है तथा कभी साधु का भी प्राणघात कर सकता है इसलिए गज के सामने महावत के द्वारा दिया गया
आहार भी नहीं लेना चाहिए (मवृ प. ११५)। ४. मूल गाथा में साधु शब्द का प्रयोग नहीं है। टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि 'सघरमीसे त्ति अत्र साधुशब्दोऽध्याह्रियते'
अर्थात् यहां साधु शब्द का अध्याहार करना चाहिए। स्वगृह श्रमणमिश्र का स्वगृहपाषण्डिमिश्र में अन्तर्भाव हो जाता है
अत: उसका अलग से निर्देश नहीं किया गया है (मवृ प. ११५)। ५. ग्रंथकार ने इस गाथा में मिश्रजात और अध्यवपूरक का भेद स्पष्ट किया है। मिश्रजात में यावदर्थिक आदि के लिए प्रारंभ
में ही अधिक पकाया जाता है और अध्यवपूरक में बाद में तंडुल आदि का अधिक परिमाण किया जाता है (मवृ प.
११५, ११६)। ६. स्वगृहयावदर्थिकमिश्र अध्यवपूरक विशोधि कोटि के अन्तर्गत आता है। ७. स्वगृहपाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र में स्थाली से उतना भाग पृथक करने पर या पाषंडियों को देने पर भी शेष आहार
कल्पनीय नहीं होता (मवृ प. ११६)।
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