________________
अनुवाद
१६७
१९२/२. शुष्क और आर्द्र-इन दो प्रकार की वस्तुओं के सदृशपात अथवा असदृशपात से चतुर्भगी होती है; जैसे
• शुष्क में शुष्क। • शुष्क में आई। • आर्द्र में शुष्क तथा • आर्द्र में आर्द्र। इनमें दो भंगों (प्रथम और चतुर्थ) में तुल्य निपात तथा दो भंगों (द्वितीय और
तृतीय) में अतुल्य निपात है।' १९२/३,४. प्रथम भंग में शुष्क द्रव्य में शुष्क द्रव्य गिर जाने पर उसको सरलता से निकाल कर दूर किया
जा सकता है। दूसरे भंग में शुष्क द्रव्य में तीमनादि (विशोधिकोटिक दोष वाला) मिल गया, तब उसमें कांजी आदि द्रव मिलाकर पात्र को टेढ़ा कर पात्र मुख पर हाथ देकर उसमें से द्रव अलग कर दिया जाता है। तीसरे भंग में शुद्ध आर्द्र तीमन आदि में अशुद्ध शुष्क द्रव्य गिर गया तो उसमें हाथ डालकर जितना निकालना संभव हो सके, उतना निकाल दिया जाता है फिर तीमन आदि कल्पनीय होता है। चतुर्थ भंग में आर्द्र में आई गिर जाने पर, शुद्ध आई द्रव्य में अशुद्ध आई द्रव्य मिश्रित हो जाने पर,
वह द्रव्य यदि दुर्लभ हो तो अशुद्ध द्रव्य निकालकर शेष का परिभोग करना कल्पनीय है। १९२/५. मुनि यदि उस द्रव्य के बिना निर्वाह कर सके तो समस्त द्रव्य का परित्याग कर दे। निर्वाह न कर सकने की स्थिति में ऊपर वर्णित चतुगी का सहारा ले। इन भंगों का सहारा लेने वाला अशठ मुनि शुद्धि को प्राप्त होता है और मायावी मुनि इनमें बंधता है। १९२/६. कोटीकरण दो प्रकार का है-उद्गमकोटि तथा विशोधिकोटि । उद्गमकोटि के छ:२ प्रकार तथा विशोधिकोटि के अनेक प्रकार हैं। १९२/७. कोटिकरण नव प्रकार का, अठारह प्रकार का, सत्तावीस प्रकार का, चौपन प्रकार का, नब्बे प्रकार का तथा दो सौ सत्तर प्रकार का होता है। १. गाथा में 'सुक्कोल्ल सरिसपाए' शब्द से तुल्यनिपात तथा 'असरिसपाए' शब्द से अतुल्य निपात को प्रकट किया गया है
(मवृ प. ११८)। २. उद्गमकोटि के छह प्रकार हेतु देखें गा. १९० का अनुवाद। ३. स्वयं हनन करना, करवाना तथा अनुमोदन करना, स्वयं पकाना, पकवाना तथा पकाने का अनुमोदन करना, स्वयं क्रय
करना, करवाना तथा उसका अनुमोदन करना-इन नौ भेदों में आद्य छह भेद अविशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं और अंतिम तीन विशोधि कोटि में है। इसको कोई राग या द्वेष से सेवन करता है अत: ९ से दो का गुणा करने पर अठारह भेद होते हैं। मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति-इन तीन से ९ का गुणा करने पर २७ तथा राग-द्वेष का इनके साथ गुणा करने पर ५४ भेद होते हैं तथा मूल ९ भेदों का दशविध श्रमण धर्म से गुणा करने पर ९० भेद होते हैं । ९० का ज्ञान, दर्शन और चारित्र से गुणा करने पर २७० भेद होते हैं (विस्तार हेतु देखें मवृ प.११९, १२०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org