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अनुवाद
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कौटुम्बिकों से छीनकर आहार आदि देते हैं, उसे ग्रहण करना साधु को नहीं कल्पता। (यह स्वामी विषयक आच्छेद्य है।) १७५. यदि साधु के लिए आहार, उपधि आदि दूसरे से छीनकर दे तो कलह संभव है। कलह न होने पर भी आच्छेद्य आहार ग्रहण करने में निम्न दोष हैं१७६. आच्छेद्य आहार लेने से अप्रीति तथा अंतराय दोष होता है। मुनि को अदत्तादान दोष लगता है। एक या अनेक साधुओं के लिए भक्तपान का विच्छेद होता है। उपाश्रय से निष्कासन तथा उपाश्रय न मिलने पर अन्यान्य कष्ट भी होते हैं। १७७. कुछेक चोर मुनियों के लिए अथवा स्वयं के लिए दरिद्र मनुष्यों से आहार छीनकर देते हैं, वह मुनियों को लेना नहीं कल्पता। स्तेनाच्छेद्य आहार ग्रहण करने से इतर मुनियों के भक्तपान का विच्छेद होता है, जिनसे छीना गया है, उनके मन में प्रद्वेषभाव पैदा होता है। यदि वे दरिद्र मनुष्य भक्तपान देने की अनुमति देते हैं तो मुनि वह ले सकता है। १७७/१,२. कुछ चोर साधुओं के प्रति भद्र होते हैं। सार्थ में जाते हुए साधुओं का भक्त-पान आदि पूरा होते नहीं देखकर चोर यदि आच्छेद्य आहार देते हैं तो वह साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे साधुओं का सार्थ से निष्काशन तथा उनके भक्तपान का विच्छेद न हो। 'घृतसक्तु दृष्टान्त' की भांति सार्थ में चलने वालों की अनुमति हो तो मुनि आच्छेद्य आहार ग्रहण करे लेकिन चोर के जाने पर पुन: उनको वह
आहार दे देवे। यदि सार्थिक अनुज्ञा दे दें तो साधु उस आहार को ग्रहण कर सकता है। १७८. तीर्थंकरों ने अनिसृष्ट-अननुज्ञात ग्रहण का प्रतिषेध किया है। सुविहित मुनियों के लिए 'निसृष्ट'अनुज्ञात आहार कल्पनीय है। अनिसृष्ट' अनेक प्रकार का है-लड्डविषयक, भोजनविषयक, कोल्हू विषयक, विवाह-भोज विषयक, दूध विषयक तथा आपण विषयक आदि। १७९-१८०. बत्तीस युवकों ने सामान्य मोदक बनवाए। नियुक्त रक्षक से मुनि ने पूछा-'शेष युवक कहां
१. टीकाकार ने इस गाथा की विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या की है। उनके अनुसार स्तेनाच्छेद्य का प्रसंग सार्थ में जाते हुए मुनियों के समक्ष उपस्थित होता है। उस समय गरीब सार्थिकों से बलात् लेकर चोर उनको देवें तो उसे साधु ग्रहण न करे। यदि वे सार्थ चोरों के द्वारा बलात् लेने पर ऐसा कहते हैं कि हमारे सामने घृत सक्तु का दृष्टान्त उपस्थित हुआ है अर्थात् सक्तु के मध्य डाला हुआ घी विशिष्ट संयोग के लिए होता है अतः चोर को अवश्य हमारा आहार ग्रहण करना चाहिए। यदि चोर साधु को देंगे तो हमें महान् समाधि होगी। इस प्रकार सार्थिक के द्वारा अनुज्ञात देय को साधु ग्रहण कर सकते हैं। फिर चोरों के चले जाने पर साधु वह द्रव्य सार्थिकों को देते हुए कहे कि उस समय हमने चोर के भय से वह आहार ले लिया, अब वे गए अत: यह द्रव्य तुम ग्रहण कर लो। ऐसा कहने पर यदि वे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें तो साधु के लिए वह आहार
कल्पनीय है (मवृ प. ११३)।। २. टीकाकार ने अनिसृष्ट के सामान्य रूप से दो भेद किए हैं-१. साधारण अनिसृष्ट २. भोजन अनिसृष्ट। भोजन अनिसृष्ट
को ग्रंथकार ने 'चोल्लग' शब्द से निर्दिष्ट किया है तथा शेष जंत आदि को साधारण अनिष्ट के रूप में निर्दिष्ट किया है (मवृ प. ११३)।
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