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पिंडनियुक्ति
विसर्जित कर दिया। ऐसे गीतार्थ मुनि कतिपय ही होते हैं और कुछेक व्यक्तियों में ही प्रव्रज्या के परिणाम उदित होते हैं। १४४/४, १४५. वस्त्र-पात्र आदि से संबंधित लौकिक प्रामित्य में दासत्व तथा श्रृंखला-बंधन आदि दोष होते हैं । लोकोत्तर प्रामित्य विषयक दोष ये हैं-(किसी से वस्त्र उधार लेकर मुनि को दिया , मुनि ने उसका उपभोग किया।) वह वस्त्र मलिन हो जाने पर, फट जाने पर, जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर, चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर अथवा मार्ग में गिर जाने पर कलह हो सकता है। पूर्वयाचित वस्त्र से भी सुंदर वस्त्र पुनः समर्पित करने पर भी कोई दाता दुष्कर रुचि हो सकता है, तब कलह आदि दोष की संभावना रहती है। १४६. किसी मुनि को वस्त्र की अत्यंत आवश्यकता है। दूसरा मुनि उसे वस्त्र देना चाहे तो उच्चभावना से बिना किसी आशंसा से वह वस्त्र दे, उधार न दे। कोई मुनि कुटिल अथवा आलसी है, उसको यदि वस्त्र देना पड़े तो स्वयं उसको न दे। वस्त्र को गुरु के पास रख दे। गुरु स्वयं उसे वह वस्त्र दे, जिससे कि कलह न हो। १४७. परिवर्तित दोष के भी संक्षेप में दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। ये दोनों दो-दो प्रकार के हैंतद्रव्यविषयक तथा अन्यद्रव्यविषयक। १४८. दो पड़ोसी आपस में एक दूसरे के संबंधी थे। साधु के लिए पौद्गलिक शाल्योदन का परिवर्तन किया। कलह होने पर मुनि के उपदेश से सबको बोधि प्राप्त हो गई। १४८/१. मुनि ने दरिद्रता से अभिभूत अपनी भगिनी पर अनुकम्पा करके उसके घर में प्रवास किया। बहिन ने पड़ोसी भाई की पत्नी से आहार का परिवर्तन किया। शाल्योदन के स्थान पर कोद्रव देखकर भाई ने कारण पूछा। मत्सर भाव के कारण पत्नी ने कारण नहीं बताया। पति ने उसको प्रताड़ित किया। १४८/२. इधर दूसरे ने भी पत्नी को प्रताड़ित किया। रात्रि में साधु ने दोनों को उपशान्त किया। बोधि प्राप्त होने पर उनकी दीक्षा हो गई इसलिए परिवर्तित आहार नहीं लेना चाहिए क्योंकि कितने ऐसे लोग हैं, जो कलह का उपशमन करते हैं।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १९ । २. तद्रव्यविषयक परिवर्तन जैसे दुर्गन्धयुक्त घी देकर साधु के लिए सुगंध युक्त घी लेना। अन्यद्रव्यविषयक परिवर्तन, जैसेकोद्रव का भोजन देकर शाल्योदन लेना आदि, यह लौकिक परिवर्तित दोष है (मवृ प. १००)।
था में आए 'सज्झिलग' शब्द का अर्थ टीकाकार ने भाई किया है लेकिन यहां पडोसी अर्थ होना चाहिए। संबंध के हिसाब से भी दोनों साला-बहनोई लगते हैं अतः यहां पड़ोसी अर्थ ही संगत लगता है। देशी शब्द कोश में सज्झिलग के दोनों
अर्थ दिए गए हैं (मवृ प. १००)। ४. दशजिचू पृ. २३६ ; पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ-पूर्व देशवासी ओदन को पुद्गल कहते थे। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २० ।
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