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पिंडनियुक्ति
१४०. आत्मक्रीत दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। द्रव्य से-चूर्ण आदि से। भाव से-साधु के लिए दूसरे के द्वारा स्वयं के विज्ञान-प्रदर्शन से उपार्जित द्रव्य परभावक्रीत है अथवा आहार के लिए स्वयं धर्मकथा आदि से उपार्जित द्रव्य आत्मभावक्रीत है। १४१. निर्माल्य', गंधद्रव्य, गुटिका', वर्णक-चन्दनादि, पोत्त-लघु वस्त्रखंड आदि से आहार आदि अर्जित करना-ये आत्मद्रव्यक्रीत हैं। इनके उपयोग से ये दोष संभव हैं-ग्लानता, प्रवचन की अप्रभावना, स्वस्थता होने पर लोगों की चाटुकारिता तथा अधिकरण। १४२. कोई मंख वजिका-छोटे गोकुल आदि में जाकर वहां पट दिखाकर लोगों को आकृष्ट करके संयमी मुनि के लिए घी, दूध आदि लाकर मुनि को निमंत्रण देता है, यह परभावक्रीत आहार है, इसमें तीन दोष हैं-क्रीत, अभ्याहत और स्थापित। १४२/१. एक गांव में एक मंख शय्यातर था। उसने साधुओं को आहार के लिए निमंत्रण दिया। साधुओं ने प्रतिषेध किया। वर्षावास का बहुत समय बीत जाने पर उसने मुनियों को पूछा-'चातुर्मास के पश्चात् आप किस दिशा में जाएंगे?' मुनियों ने कहा-'अमुक दिशा में।' तब मंख ने उसी दिशा में स्थित अनेक घरों से परिचय किया। १४२/२. उन लोगों ने मंख को दूध, घी आदि देना चाहा। उसने उन लोगों को प्रतिषेध करते हुए कहा-'अभी नहीं, प्रयोजन होने पर लूंगा।' मुनि वहां आए। मंख ने पहले ही आकर उन घरों से घृत आदि लेकर एक घर में एकत्रित कर लिया। (मुनियों के वहां आने पर उनको उसका दान दिया।) १४३. जो मुनि लोगों को प्रभावित करने के लिए धर्मकथा, वाद, तपस्या, निमित्त का आख्यान, आतापना आदि करता है तथा अपने आपको श्रुतस्थान-आचार्य बताता है अथवा जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प आदि बताकर आहार आदि संपादित करता है-यह आत्मभावक्रीत है।
१. मवृ प. ९६; निर्माल्यं-तीर्थादिगतसप्रभावप्रतिमाशेषा-देव का उच्छिष्ट द्रव्य। २. मवृ प. ९६; मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावर्तादिकारिका गुटिका-रूप-परिवर्तन के लिए मुख में रखी जाने वाली गोली
गुटिका कहलाती है। ३. टीकाकार के अनुसार ये सभी वस्तुएं कार्य में कारण के उपचार से आत्मद्रव्यश्रीत हैं (मवृ प. ९६)। निर्माल्य आदि देने के बाद देवयोग से कोई रुग्ण हो जाता है तो प्रवचन का उड़ाह होता है। निर्माल्य आदि से यदि कोई रुग्ण
नीरोग हो जाता है तो उससे चाटुकारिता बढ़ती है। सभी उसकी प्रशंसा करते हैं। प्रशंसा को सुनकर अन्य लोग आकर भी - उससे निर्माल्य, गंध आदि की याचना करते हैं। नहीं मिलने पर कभी-कभी कलह का प्रसंग भी आ जाता है (मवृ प. ९६)। ५. म प. ९६; मङ्गः कैदारको यः पटमुपदर्य लोकमावर्जयति-पट आदि दिखाकर लोगों को आश्चर्यचकित करने वाला
व्यक्ति। ६. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १८। ७. मुनियों ने एषणापूर्वक उसको ग्रहण किया अतः यह शुद्ध आहार है। यदि उनको मंख की चेष्टा ज्ञात हो जाती और वे उस
आहार को ग्रहण करते तो मुनि तीन दोषों के भागी होते-क्रीत, अभ्याहृत तथा स्थापित (मवृ प. ९६)।
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