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अनुवाद
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अन्धकार से प्रकाश वाले स्थान में ले जाना, दीवार में छेद करना अथवा दीवार को गिरा देना, रत्नप्रदीप अथवा अग्नि को जलाना-इस प्रकार प्रकाश करके सुविहित साधुओं को दान देना नहीं कल्पता। इसमें जो आहार आत्मार्थीकृत होता है, वह कल्पता है। यदि किसी मुनि ने सहसा प्रादुष्करणदोष से दुष्ट आहार ले लिया हो, उसका परिभोग नहीं किया हो तो उस आहार को परिष्ठापित करके पात्र को धोए बिना भी उसमें शुद्ध आहार लेना कल्पता है। १३८/१. चुल्ली के तीन प्रकार हैं-१. संचारिम' २. साधु के लिए पहले से बाहर बनाई हुई चुल्ली ३. उस समय साधु के निमित्त बाहर बनाई गई चुल्ली। इन तीनों में से किसी भी चुल्ली पर पकाया हुआ आहार लेने में दो दोष हैं-उपकरणपूति तथा प्रादुष्करण। १३८/२. गृहिणी कहती है-'हे साधु! तुम अंधकारमय स्थान से भिक्षा नहीं लेते अतः मैंने बाह्य चुल्ली पर अन्न पकाया है।' यह सुनकर मुनि उस आहार का परिहार करे। शंका होने पर पूछने से यदि गृहिणी यथार्थ कहे तो मुनि पहले की भांति ही उस आहार का परिहार करे। १३८/३. कोई गृहनायिका पहले साधुओं के लिए बाह्यभाग में चुल्ली बनाकर फिर सोचती है-घर के भीतर मक्खियां बहुत हैं, गर्मी भी रहती है। बाहर हवा और प्रकाश रहता है तथा पाकस्थान से भोजनस्थान भी निकट रहता है इसलिए अब मैं प्रतिदिन अपना भोजन यहीं करूंगी। इस प्रकार उसको आत्मार्थी कर लेने पर वहां पकाया हुआ आहार मुनि के लिए कल्पता है। प्रादुष्करण के विषय में यह कल्प्य-अकल्प्य की व्याख्या है। १३८/४,५. प्रकाश के लिए दीवार में छिद्र करना, छोटे द्वार को बड़ा बनाना, दूसरा द्वार बनाना, ऊपर के आच्छादन या छत को हटाना, देदीप्यमान रत्न की स्थापना करना, ज्योति जलाना, दीया जलानागृहस्वामिनी को पूछने पर वह कहे या बिना पूछे ही यह बात बताए कि मुनि के लिए किया गया है तो वैसा आहार प्रादुष्करण दोष दुष्ट होता है इसलिए वह मुनि के लिए वर्ण्य है। यदि गृहस्वामिनी ये सारी बातें अपने लिए करती है तो वहां का आहार मुनि के लिए कल्प्य है परन्तु ज्योति और प्रदीप-ये दोनों साधन वर्ण्य हैं क्योंकि इनमें तेजस्काय का स्पर्श होता है। १३८/६. प्रकटकरण अथवा प्रकाशकरण किए जाने पर यदि मुनि सहसा अथवा अनजान में आहार ग्रहण कर लेता है तो जानकारी के पश्चात् उस आहार का परिष्ठापन करके बिना प्रक्षालन किए उसी पात्र में दूसरा शुद्ध आहार ग्रहण कर सकता है। १३९. क्रीतकृत के दो प्रकार हैं-द्रव्यक्रीत तथा भावक्रीत। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-आत्मक्रीत और परक्रीत। परद्रव्यक्रीत तीन प्रकार का है-सचित्त, मिश्र और अचित्त।
१. मवृ प. ९४; संचारिमा या गृहाभ्यन्तरवर्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते-गृह के अंदर वाली चुल्ली, जिसे कारणवश बाहर ले जाया जा सके।
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