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अनुवाद
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उनको ग्रहण करना कल्पता है। स्थापित घृत देशोनपूर्वकोटि तक स्थापनादोष युक्त हो सकता है। इसी प्रकार करम्ब रूप में परिवर्तित द्रव्य भी जितने काल तक अविनाशी रूप में रहता है, तब तक स्थापना दोष युक्त होता है। १२९. इक्षुरस का कक्कब, पिंड, गुड़, मत्स्यंडिका-एक प्रकार की शर्करा, खांड तथा शर्करा बनाकर स्थापित कर दिया, यह परंपर स्थापना है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी पर्यायान्तर करने पर परम्पर स्थापना होती है। (जितना स्थापित किया है, उसमें से जितना आधाकर्म न हो और जो आत्मार्थीकृत कर लिया हो, वह कल्पता है।) १३०. एक भिक्षाग्राही एक घर का उपयोग करता है। दूसरा दो घरों का करता है, तीन घरों का उपयोग होने तक स्थापना दोष नहीं होता। तीन घरों से परे मुनि के लिए अलग से निकाली हुई भिक्षा प्राभृतिका स्थापना होती है। १३१. प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । दोनों के दो-दो भेद हैं-अवष्वष्कण तथा उत्ष्वष्कण। साधु-समुदाय का आना-जाना जानकर लड़की के विवाह को अवष्वष्कण, उत्ष्वष्कण अर्थात् पहले-पीछे करना बादर प्राभृतिका स्थापना है। १३२, १३३. पुत्र द्वारा भोजन मांगने पर मां कहती है-'पुत्र! बार-बार मत मांग। अभी परिपाटी-बारीबारी से घरों में भिक्षा लेते हुए साधु यहां आएंगे तो मैं उनको भिक्षा देने के लिए उलूंगी, तभी तुझे भोजन दूंगी।' यह वचन सुनकर मुनि उस घर की भिक्षा का विवर्जन करता है अथवा मां का वचन सुनकर वह बालक साधु की अंगुलि पकड़कर अपने घर पर लाता है। साधु पूछता है-'तुम मेरी अंगुलि क्यों खींच रहे हो?' यह पूछने पर बालक यथार्थ कह देता है। बालक की बात सुनकर मुनि वहां भिक्षा के लिए नहीं जाता क्योंकि वहां उत्सर्पण रूप सूक्ष्म प्राभृतिका दोष होता है। १३४. साधु-समुदाय के विहार होने के बाद पुत्र के विवाह का दिन जानकर कोई श्रावक जीमनवार में बनने वाले मोदक तथा द्रव-तण्डुलधावन आदि साधु को देने के लिए नियतकाल से पूर्व पुत्र-विवाह करता है, यह अवष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका है। १३५. निश्चित विवाह के दिन साधु-समुदाय का आगमन न होने से विवाह को नियतकाल से आगे करना
१. स्थापना दोष का उत्कृष्ट कालमान देशोनपूर्वकोटि है क्योंकि चारित्र का कालमान आठ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना। उसका आयुष्य पूर्वकोटि प्रमाण था। उसने पूर्वकोटि आयुष्य वाली किसी गृहिणी से घृत की याचना की। उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद घत दूंगी।' मनि को अन्यत्र घत की प्राप्ति हो गई। गहिणी के कहने पर मनि ने कहा-'अभी प्रयोजन नहीं है, जब आवश्यकता होगी, तब लूंगा।' गृहिणी ने उस घृत को साधु के निमित्त स्थापित कर दिया और उसको तब तक रखा, जब तक कि मुनि दिवंगत नहीं हो गए। साधु के दिवंगत होने पर वह घृत स्थापना दोष से मुक्त हो गया (मवृ प. ९१)।
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