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अनुवाद
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११९. श्रमणों के लिए कृत आहार, उपधि, वसति आदि सारा आधाकर्म है। जो श्रमणों के लिए किए आधाकर्म आहार से मिश्र है, वह सारा पूर्ति है ।
११९ / १. मुनि को पूतिदोष की संभावना हो तो वह श्रावक या श्राविका से पूछे- 'तुम्हारे घर में क्या कुछ दिन पूर्व जीमनवार या संघभक्त हुआ था ?' अथवा गृहिणियों के परस्पर संलाप से जान ले कि वहां पूति है या नहीं ? ( संखडि या संघभक्त होने पर तीन दिन उस घर में पूति रहती इसलिए मुनि वहां आहार न ले चौथे दिन वहां से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है।)
१२०. मिश्रजात के तीन प्रकार हैं- यावदर्थिक, पाषंडिमिश्र तथा साधुमिश्र । मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित होने पर भी नहीं कल्पता । (जिसने मिश्रजात आहार बनाया, उसने उसे दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को - इस प्रकार हजारवें व्यक्ति को दे देने पर भी वह आहार नहीं कल्पता ।) जिस भाजन में मिश्रजात है, उस पात्र से मिश्रजात का अपनयन कर उसे तीन बार प्रक्षालित कर उसमें शुद्ध आहार लेना कल्पता है ।
१२१. यह अन्न आने वाले सभी भिक्षाजीवियों के लिए नहीं पकाया गया है अपितु विवक्षित भिक्षाचरों के लिए है अत: तुम साधुओं को उनकी इच्छा के अनुसार दो। अथवा अत्यधिक भिक्षाचरों के आ जाने पर, जो पहले पकाया गया है, वह पूरा नहीं होगा अतः गृहनायक अपनी पत्नी से कहता है - 'इसमें और अधिक अन्न डालकर पकाओ', वह आहार यावदर्थिक मिश्रजात है ।
१२२. अपने कुटुम्ब के लिए भोजन पकाते समय कोई दूसरा गृहस्वामी कहता है कि पाषंडियों के लिए भी कुछ अधिक पकाओ। तीसरा गृहनायक कहता है कि अपने भोजन के साथ-साथ निर्ग्रन्थों के लिए भी कुछ अधिक पकाओ। (यह क्रमशः पाषंडिमिश्र और साधुमिश्र आहार है । )
१२३. सहस्रवेधक विष से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। उस व्यक्ति का मांस खाने वाला भी मर जाता है फिर उसका मांस खाने वाला मर जाता है। इस पारंपर मरण में उस मांस को खाने वाला हजारवां व्यक्ति भी मर जाता है।
१२४. इसी प्रकार तीनों प्रकार का मिश्रजात आहार साधु की सुविशुद्ध चारित्र - आत्मा का विनाश कर डालता है इसलिए वैसा मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित होने पर भी नहीं कल्पता ।
१२५. मिश्रजात आहार लेने पर मुनि उस पात्र से उसका पूरा अपनयन करके, अंगुलि आदि से उसका मार्जन करे अथवा सूखे गोबर से पात्र को साफ करे फिर तीन कल्प से उसका प्रक्षालन कर आतप में सुखाए, फिर उसमें शुद्ध अन्न ग्रहण करे । (अन्यथा पूतिदोष की संभावना रहती है) कुछ आचार्यों का मत है कि चौथी बार प्रक्षालन करके बिना सुखाए ही उस पात्र में भोजन लेने में कोई दोष नहीं है।
१. इस गाथा में गा. १२० में आए सहसंतर (सहस्रान्तरित मिश्रजात) की व्याख्या है।
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