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अनुवाद
११३/३. आधाकर्मिक दर्वी को यदि स्थाली से बाहर निकाल दिया जाए तो स्थाली का आहार कल्प्य है लेकिन आधाकर्मिक दव से शुद्ध आहार भी दिया जाए तो वह आहारपूति है । दर्वी आधाकर्मिकी नहीं है लेकिन पहले आधाकर्म आहार को हिलाकर फिर शुद्ध आहार का घट्टन करती है तो वह शुद्ध आहार भी आहारपूर्ति कहलाता है ।
१९३/४, ११४. अपने लिए तक्र आदि का पान करने के लिए आधाकर्मिक शाक, लवण, हींग, राई तथा जीरा आदि को उस तक्र में मिश्रित करना या बघार देना भक्तपानपूर्ति है । जिस स्थाली में पहले आधाकर्म आहार पकाया था, उसे दूसरे पात्र में डालकर कल्पत्रय से साफ किए बिना उसमें शुद्ध आहार निकाला जाए, पकाया जाए अथवा प्रक्षिप्त किया जाए तो वह भक्तपानपूति होता है। निर्धूम अंगारों पर बेसन, हींग, जीरक आदि डालने पर जो धूम निकलता है, उस धूम से व्याप्त स्थाली, तक्र आदि भी पूति दोष से युक्त हैं।
११५. जो शुद्ध अशन आधाकर्मिक ईंधन (अंगारा), धूम, गंध आदि के अवयवों से सम्मिश्रित है, वह सूक्ष्मपूर्ति है। इस सूक्ष्मपूर्ति के विषय में शिष्य कहता है- सूक्ष्मपूर्ति का वर्जन करना अच्छा है तो फिर आगमों में उसका निषेध क्यों नहीं है, ऐसा कहने पर गुरु कहते हैं
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११६. आधाकर्म ईंधन के अवयव, धूम, गंध आदि से मिश्रित अशन पूति नहीं होता। जो इस पूर्ति को मानते हैं, उनके मत से साधु की सर्वथा शुद्धि नहीं हो सकती ।
११६ / १. ( गुरु कहते हैं ) ईंधन और अग्नि के अवयव सूक्ष्म होते हैं। वे धूम के साथ अदृश्य होकर फैलते हैं तथा धूम, वाष्प और अन्न की गंध - ये सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। इस मत के अनुसार तो सारा जगत् ही पूति हो जाएगा।
११६/२. शिष्य पुनः कहता है- यदि सूक्ष्मपूति असंभव है तो फिर पूर्व उद्दिष्ट भावपूति के दो भेदबादर और सूक्ष्म- इनमें सूक्ष्मपूर्ति की सिद्धि कैसे होगी ? इसलिए यह सिद्ध है कि ईंधन, धूम आदि से सम्मिश्रित अन्न सूक्ष्मपूति है ।
११६/३. गुरु कहते हैं- 'शिष्य ! ईंधन, अग्निकण, धूम और वाष्प - इन चारों से सूक्ष्मपूति होती है, वह केवल प्ररूपणा मात्र है, इसका परिहार नहीं हो सकता । '
११६/४. कार्य के दो प्रकार हैं-: - साध्य और असाध्य । साध्य कार्य को साधा जाता है, असाध्य को नहीं । जो व्यक्ति असाध्य कार्य को साधने का प्रयत्न करता है, वह क्लेश पाता है और कार्य को भी नहीं साध सकता ।
१. टीकाकार के अनुसार यह बादरपूति का उदाहरण है।
२. 'आदि' शब्द से वाष्प आदि का ग्रहण करना चाहिए (मवृ प. ८५ ) ।
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