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अनुवाद
१०२, १०३. दधि आदि से भरे पात्र को रिक्त करने के लिए अथवा दधि आदि से मिश्रित किए बिना दुर्गन्धयुक्त हो जाता है अथवा दधि आदि से मिश्रित होने पर उसे सुखपूर्वक एक ही बार में दिया जा सकता है—इत्यादि कारणों से ओदन को दधि आदि से मिश्रित करके करम्ब बनाना - यह कृत है । दधि और ओदन को पृथक्-पृथक् देने पर पाषंडिजन अवर्णवाद बोलेंगे। जो परिकट्टलित - एकत्र पिंडीभूत है, उसे सुखपूर्वक दिया जा सकता है अतः विकट-मद्य विशेष', फाणित तथा घृत आदि से मोदक के चूर्ण को पिंडरूप में बांधना कृत कहलाता है।
१०४. इसी प्रकार कर्म औद्देशिक का स्वरूप है केवल द्रव्यों को उष्ण करने में नानात्व है; जैसे गुड़ आदि को तपाकर मोदक चूर्ण में मिलाकर पुनः मोदक बनाना ।
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१०५. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि को यदि गृहस्थ कहता है कि अमुक पदार्थ को मैं पुनः पकाकर (मोदक चूर्ण को गुड़पाक से पुनः मोदक बनाकर ) दूंगा तो वह पदार्थ कर्म औद्देशिक होने के कारण मुनि के लिए अकल्प्य है । यदि वह पाक क्रिया से पूर्व देता वह कल्पनीय है। इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा से घर के अंदर या बाहर तथा काल की अपेक्षा कल या परसों (पुनः पकाकर दूंगा तो वह साधु के लिए अकल्प्य है । यदि उससे पहले दे तो कल्पनीय है ।
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१०५/१. 'मैं अमुक द्रव्य को ऐसा करके दूंगा' वैसा द्रव्य कृत से पूर्व लेना कल्पता है । वैसा करके देने पर उसका ग्रहण अकल्प्य है। जो यावदर्थिक पाक दान के लिए निश्चित कर रखा है, वह द्रव्य यदि आत्मार्थीकृत है, वह कल्पनीय है, शेष अनिष्ट है, अननुज्ञात है।
१०६. षट्काय के प्रति निरनुकंप, जिन-प्रवचन से रहित बाह्य दृष्टि वाले तथा बहुभक्षक व्यक्ति केवल बोड - मुंडित सिर वाले ही होते हैं। उनकी वही स्थिति होती है, जैसे लुप्त लुंचित पंख वाले कपोत की । १०७. पूतिकर्म के दो प्रकार हैं- द्रव्यपूति और भावपूति । द्रव्यपूति है छगणोपलक्षित धार्मिक का दृष्टान्त । भावपूर्ति के दो प्रकार हैं - बादर और सूक्ष्म ।
१०८. जो द्रव्य पहले सुरभिगंध आदि गुणों से समृद्ध था, फिर वह अशुचिगंध वाले द्रव्य से युक्त हो जाने पर यह 'पूति' है ऐसा जानकर उसका परिहार किया जाता है, यह द्रव्यपूर्ति है ।
१०८/१,२. समानवय के लोगों ने यक्षसभा को लीपने के लिए धार्मिक की नियुक्ति की । मण्डक, वल्ल और सुरापान करने से किसी कर्मकर को अजीर्ण हो गया। उसने वहीं गो-बाड़े में दुर्गन्धयुक्त मल का व्युत्सर्जन कर दिया। उसके ऊपर भैंस ने गोबर कर दिया । नियुक्त धार्मिक ने गंदगी मिश्रित गोबर से यक्षमंडप को लीप दिया। जब गोष्ठी के लोग उद्यापनिका हेतु आए तो उन्हें गंध की अनुभूति हुई । लिपाई में
१. देश विशेष में मोदक के चूर्ण को पुनः बांधने हेतु मद्य विशेष का प्रयोग किया जाता था (मवृ प. ८१)। २. टीकाकार गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि तुवरी आदि भक्त भी रात्रि का पर्युषित हो तो उसे भी गर्म करके संस्कारित किया जाता है अतः 'कर्म' में द्रव्यों को उष्ण करने की विविधता है (मवृ प. ८२) ।
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