________________
१४४
पिंडनियुक्ति
दो-दो भेद हैं-छिन्न (नियमित), अछिन्न (अनियमित) ये दोनों चार-चार प्रकार के हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव। (छिन्न, अछिन्न का इन चार भेदों से गुणा करने पर आठ भेद हो जाते हैं।) इसी प्रकार निष्पादितनिष्पन्न भी कृत और कर्म में जो जहां घटित होता है, उसे वैसा जानना चाहिए। ९९/१. जीमनवार में जो आहार आदि बचा है, उसे उसी दिन अथवा अन्य दिन बाहर अथवा भीतरी क्षेत्र में देना, क्षेत्र अच्छिन्न है। सारा देना, द्रव्य अच्छिन्न है। पूरे दिन तक अथवा अनवरत देना-कालअच्छिन्न है। (भाव-अच्छिन्न है-रुचिकर हो या न हो तो भी अवश्य देना।) ९९/२. यह आहार दो, बाकी का नहीं-यह द्रव्य-छिन्न है। अन्तर्व्यवस्थित अथवा बहिर्व्यवस्थित-दोनों में से एक दो-यह क्षेत्र-छिन्न है। अमुक समय से प्रारम्भ कर अमुक काल तक दो-यह काल-छिन्न है। (भाव-छिन्न है-जितना तुमको देना हो उतना दो, इससे अतिरिक्त नहीं।) १००. जो वस्तु द्रव्य, क्षेत्र आदि से छिन्न है परन्तु गृहस्वामी नियत अवधि से पूर्व ही कह देता है कि अब किसी को न दी जाए, तब वह वस्तु कल्पनीय है क्योंकि गृहस्वामी ने उसको अपना बना लिया है। जो अच्छिन्नकृत है, उसका साधु परिहार करते हैं। १०१. ये द्रव्य अमुक को देने हैं, अमुक को नहीं-इस प्रकार के संकल्प' में कभी लेना कल्पता है और कभी नहीं। (यदि यतियों का विशेष रूप से निर्देश होता है तो वह निश्चित रूप से नहीं कल्पता।) १०१/१. (अभी वस्तु औद्देशिक नहीं हुई है, वह उद्दिश्यमान है, गृहस्वामी कहता है-यह वस्तु देनी है, शेष नहीं।) ऐसी सन्दिश्यमान वस्तु के बारे में जो सुनता है, उस मुनि को वह द्रव्य उसी समय लेना कल्पता है। जो नहीं सुनते उनको स्थापना दोष के कारण नहीं कल्पता। वह मुनि वहां से चलकर, जिन मुनियों ने नहीं सुना है, उनको पूर्व पुरुषाचीर्ण मर्यादा का कथन करता है अथवा संकलिका' से एक संघाटक दूसरे संघाटक को और दूसरा तीसरे को-इस प्रकार सभी मुनियों को यह ज्ञात करा देता है कि 'इस घर की भिक्षा अनेषणीय है। न सुनने पर मर्यादा इस प्रकार है।' १०१/२. (साधु को भिक्षा देते समय कोई स्त्री कहती है-) 'यह मत दो किन्तु इस भाजन में रखे द्रव्य को दो।' ऐसा कहने पर मुनि पूछता है-'इसका निषेध क्यों? वह द्रव्य क्यों दिया जा रहा है?' तब गृहस्वामिनी कहती है-'यही द्रव्य दान के लिए रखा है, यह नहीं।' यह सुनकर मुनि उस द्रव्य का परिहार करे। यदि वह पुनः कहती है कि जो दे दिया गया, वह दे दिया गया अब शेष मत दो-ऐसा निषेध करने पर जो आत्मार्थीकृत उद्दिष्ट-औद्देशिक भोजन है, वह साधु के लिए कल्पनीय है।
१. यदि गृहस्वामी यह संकल्प करता है कि यह वस्तु गृहस्थ, अगृहस्थ भिक्षाचर अथवा कोई साधु को देनी है तो वह कल्पनीय
नहीं होती। यदि उसमें साधु का निर्देश नहीं होता है तो कल्पनीय होती है (मवृ प. ८१)। २. टीकाकार ने संकलिका शब्द के दो अर्थ किए हैं-१. जिन साधुओं ने नहीं सुना, उन्हें पूर्व पुरुषों द्वारा आचीर्ण मर्यादा को बताना २. एक सिंघाड़े द्वारा दूसरे को तथा दूसरे द्वारा तीसरे सिंघाड़े को क्रमबद्ध सूचना देना (मवृ प. ८१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org