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अनुवाद
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१४३/१. धर्मकथा से प्रभावित व्यक्तियों से अथवा धर्मकथा सुनकर जाने वालों से जो कुछ भी ग्रहण करना आत्मभावक्रीत कहलाता है। कोई श्रावक पूछता है-'क्या वे प्रसिद्ध धर्मकथी आप हैं ?' मुनि कहता है-'प्रायः साधु धर्मकथी ही होते हैं' अथवा वह मुनि मौन रहता है, यह आत्मभावक्रीत है। १४३/२. (कोई श्रावक पूछता है-) 'जो जग-प्रसिद्ध धर्मकथी है, वह आप ही हैं क्या?' (मुनि कहता है-) 'क्या राख से गुंडित शरीर वाले के लिए कह रहे हो? अथवा दकसौकरिक-सांख्य के लिए? अथवा अमुक गृहस्थ या बकरों का गला मोड़ने वाले के लिए? अथवा मुंड कौटुम्बिक अर्थात् बौद्ध भिक्षुओं के लिए तुम धर्मकथी की बात कह रहे हो?'२ १४३/३. इसी प्रकार वादी, तपस्वी, नैमित्तिक, आतापक आदि के विषय में जानना चाहिए। श्रुतस्थान अर्थात् आचार्यत्व अथवा वाचनाचार्यत्व आदि के विषय में पूछने पर आहार आदि के लिए स्वयं को उस रूप में प्रस्तुत करना आत्मभावक्रीत है। १४४. प्रामित्य के संक्षेप में दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक है-भगिनी आदि द्वारा क्रीत द्रव्य। लोकोत्तर है-वस्त्र आदि। १४४/१. श्रुतज्ञान के अभ्यास से संयम-विधियों के ज्ञाता मुनि ने एक गांव के बाहर आकर पूछा'अमुक कुटुम्ब का कोई व्यक्ति जीवित है ?' उत्तर में कहा-'उस कुटुम्ब की एक पुत्री मात्र जीवित है, वह तुम्हारी बहिन है।' मुनि उसके घर गए। मुनि के लिए आहार पकाने पर मुनि ने उस आहार का निषेध किया। एक दिन उसने तैल के व्यापारी से दुगुने ब्याज से दो पल तैल उधार लाकर मुनि को दिया। (मुनि ने पूरी जानकारी के अभाव में तैल ले लिया।) १४४/२. तैल का ऋण अपरिमित होने से उसने दासत्व स्वीकार कर लिया। कालान्तर में वही भाई मुनि उसी गांव में आया और बहिन के बारे में पूछा- 'बहिन ने मुनि को अपने दासत्व के बारे में बताया।' मुनि बोले-'रो मत। मैं शीघ्र ही तुझे दासत्व से मुक्त करा दूंगा।' १४४/३. मुनि उसी सेठ के घर भिक्षा के लिए गए। गृहिणी ने भिक्षा देने के लिए हाथ धोए। मुनि बोले'पानी का समारंभ हुआ है, मुझे ऐसी भिक्षा लेना नहीं कल्पता।' कारण पूछने पर मुनि ने जीवहिंसा की बात बताई। गृहस्वामी ने पूछा-'भंते! आप कहां ठहरे हैं ?' मुनि ने कहा-'अभी कहीं स्थान नहीं मिला है।' तब गृहपति ने अपने घर में ही स्थान दे दिया। प्रतिदिन मुनि का प्रवचन एवं (वासुदेव का) उदाहरण सुनने से उसे वैराग्य हो गया। श्रेष्ठी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र और साधु भगिनी सम्मति को प्रव्रज्या के लिए
१. मौन से श्रावक यह जान लेते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथी साधु यही है क्योंकि गंभीरता के कारण यह स्वयं को प्रकाशित नहीं
कर रहा है, उससे प्रभावित होकर श्रावक उसे प्रभूत आहार आदि देते हैं (मवृ प. ९७)। २. गाथा का उपसंहार करते हुए टीकाकार कहते हैं कि मुनि से इतने विकल्प सुनने के बाद श्रावक सोचते हैं कि वह प्रसिद्ध धर्मकथी यह स्वयं ही है, तभी दूसरों का नाम ले रहा है (मवृ प. ९८)।
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