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अनुवाद
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१४९. (साधुओं का परस्पर वस्त्र आदि का परिवर्तन करना लोकोत्तर परिवर्तन है, उसके ये दोष हैं-) यह वस्त्र मेरे द्वारा प्रदत्त वस्त्र प्रमाण से न्यून है, अधिक है, जीर्णप्रायः है, कर्कश स्पर्श वाला है, मोटे सूत का बना हुआ भारयुक्त है, छिन्न है, मलिन है, ठंड से रक्षा करने में अक्षम है, विरूप वर्ण वाला है-ऐसा जानकर वह साधु विपरिणत हो सकता है अथवा अन्य साधु के कहने पर उसका मन दूषित हो सकता है। १५०. एक मुनि के पास प्रमाणोपेत वस्त्र है, दूसरे के पास वैसा नहीं है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर प्रमाणोपेत वस्त्र गुरु के पादमूल में स्थापित कर दे। गुरु उस वस्त्र को याचक मुनि को दे। गुरु के पास न रखने पर कलह हो सकता है। १५१. अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-आचीर्ण तथा अनाचीर्ण । अनाचीर्ण के दो प्रकार हैं-निशीथ अभ्याहत तथा नो-निशीथ अभ्याहत। निशीथ अभ्याहत स्थाप्य है उसे आगे कहेंगे। अभी नो-निशीथ अभ्याहत कहूंगा। १५२. नो-निशीथ अभ्याहत दो प्रकार का है-स्वग्रामविषयक तथा परग्रामविषयक। परग्राम विषयक अभ्याहत दो प्रकार का है-स्वदेश परग्राम अभ्याहत तथा परदेश परग्राम अभ्याहृत । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-जलपथ से अभ्याहृत तथा स्थलपथ से अभ्याहृत। जलपथ से अभ्याहत के दो प्रकार हैं-नौका से तथा डोंगी से। स्थलपथ से अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-जंघा तथा गाड़ी आदि से। १५३. जलमार्ग से अभ्याहृत के ये साधन हैं-जंघा, बाहु अथवा नौका आदि तथा स्थलमार्ग से अभ्याहृत के ये साधन हैं-कंधा, शकट अथवा गधा, बैल आदि खुरनिबद्ध पशु से युक्त गाड़ी। इनमें संयम-विराधना तथा आत्मविराधना होती है। संयम-विराधना में काय-अप्काय आदि की विराधना होती है। १५४. जलमार्ग से आत्मविराधना इस प्रकार होती है-गहरे पानी के कारण निमज्जन हो सकता है, जलचर विशेष की पकड़ हो सकती है, कीचड़, मगरमच्छ, कच्छप आदि के कारण पैर फंस सकते हैं। स्थलमार्ग के दोष इस प्रकार हैं-कंटक, सर्प, चोर, श्वापद आदि का दोष। १५५. स्वग्राम विषयक अभ्याहृत के भी दो प्रकार हैं-गृहान्तर तथा नोगृहान्तर। तीन घरों के अन्तर से लाया हुआ गृहान्तर कहलाता है। १५६. नोगृहान्तर के अनेक प्रकार हैं-वाटक विषयक, साही-गली विषयक, निवेशन तथा गृहविषयक, इनमें कोई गृहस्थ कापोती से, कंधे से अथवा मृन्मय या कांस्य भाजन से आहार आदि लाकर मुनि को उपाश्रय में दे, यह अनाचीर्ण है।
१. जिस ग्राम में साधु रहता है, वह स्वग्राम और शेष परग्राम। २. गृहान्तर अभ्याहृत कल्पनीय तथा नोगहान्तर अभ्याहृत अकल्प्य होता है। ३. मवृ प. १०३ ; वाटकः परिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेश:-अलग प्रतिनियत सन्निवेश वाटक कहलाता है। । ४. मवृ प. १०३ ; निवेशनम्-एकनिष्क्रमणप्रवेशानि व्यादिगृहाणि-एक ही दरवाजे वाले दो या उससे अधिक घर।
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