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अनुवाद
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मिला है। मुनियों को वंदना करने के लिए मैं उपाश्रय में आई हूं। आप यह भोज्य सामग्री लें। मुनियों को वह भोजन सामग्री देकर लौट जाती है।' १५७/६. अथवा वह गृहिणी यह कहती है-- भगवन् ! मैं यह प्रहेणक अपने परिजनों को देने के लिए घर से लाई थी परन्तु उन्होंने इसे लिया नहीं।' (अथवा कोई गृहिणी सारे प्रपंच की पूर्व रचना कर, योजनानुसार प्रहेणक लेकर जाती है और मुनियों को सुनाई दे सके, इस प्रकार बाढ़ स्वरों में शय्यातरी अथवा उपाश्रय के पास रहने वाली स्त्री से कहती है-) 'यह प्रहेणक लो।' तब वह मायापूर्वक निषेध करती हुई रुष्ट हो जाती है। दोनों में कृत्रिम कलह होने पर वह रुष्ट होकर उपाश्रय में जाती है, वंदना करती है और प्रहेणक लाने का सारा वृत्तान्त सुनाकर मुनियों को दान दे देती है। १५८. यह दोनों प्रकार का अभ्याहृत (निशीथ, नोनिशीथ अथवा स्वग्राम, परग्राम) जो कहा गया है, वह अनाचीर्ण है। आचीर्ण अभ्याहृत के दो प्रकार हैं-देश तथा देशदेश। १५९. सौ हाथ प्रमित क्षेत्र देश कहलाता है तथा सौ हाथ का मध्यवर्ती क्षेत्र देशदेश कहलाता है। इस आचीर्ण अभ्याहृत में यदि उपयोग युक्त तीन घरों का अन्तर होता है तो आहार कल्पनीय है, अन्यथा नहीं। १६०. परिवेषणपंक्ति, (जीमनवार आदि में भोजन करने वालों की पंक्ति में एक किनारे पर मुनि तथा दूसरे किनारे पर देय वस्तु।) प्रलम्ब प्रवेश द्वार अथवा घंघशाला गृह से सौ हाथ दूर से लाया हुआ आहार ग्रहण करना आचीर्ण है। उससे अधिक दूरी से लाया हआ आहार ग्रहण करना प्रतिषिद्ध है।
१६१. आचीर्ण अभ्याह्नत के तीन प्रकार हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। एक हाथ से दूसरे हाथ में लिया हुआ भोज्य देना जघन्य अभ्याहृत है। सौ हाथ से अभ्याहृत उत्कृष्ट है तथ: सौ हाथ के मध्यवर्ती स्थान से अभ्याहृत मध्यम है। ये तीनों आचीर्ण अभ्याहृत हैं। १६२. उद्भिन्न दो प्रकार का है-पिहितोद्भिन्न तथा कपाटोद्भिन्न । पिहितोद्भिन्न में पिधान दो प्रकार का होता है-प्रासुक तथा अप्रासुक। अप्रासुक है-सचित्त मिट्टी आदि का पिधान और प्रासुक है-छगण (कंडे) तथा दर्दरक-बर्तन का मुंह बांधने का वस्त्रखंड आदि। १६३. पिहितोद्भिन्न में षट्काय की विराधना होती है। साधु के निमित्त तैलपात्र को खोलकर पुत्र आदि को देने में तथा क्रय-विक्रय करने से अधिकरण-पापमय प्रवृत्ति होती है। कपाट को खोलने में भी ये ही दोष हैं। यंत्र आदि का उद्भेद करने पर विशेष विराधना होती है। १. १५७/५,६-इन दोनों गाथाओं में स्वग्राम अभ्याहृत निशीथ का उदाहरण है। २. मवृ प. १०५ ; उपयोगस्तत्र दातुं शक्यत इत्यर्थः-उपयोगपूर्वक का अर्थ है-दान देने योग्य घर। ३. यदि कोई गृहस्वामिनी अपने बच्चों को परोसने के लिए कटोरी में ओदन आदि ले जाए, इसी बीच कोई साधु भिक्षार्थ आ
जाए तो कर-परिवर्तन करना भी जघन्य अभ्याहत है (मवृ प. १०५)। ४. कुतुप-तैल आदि भरने का चमड़े का पात्र, उसके मुख को खोलकर साधु को दिया जाने वाला आहार पिहितोद्भिन्न
है (मवृ प. १०५)।
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