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पिंडनियुक्ति
वल्ल आदि के अवयव तथा सुरा आदि की दुर्गन्ध का अनुभव हुआ। (यथार्थ स्थिति जानने पर) गोमय के लेप को उखाड़कर अन्य गोबर से लेष किया गया। (अशुचि के सम्पर्क के कारण खाद्य-पदार्थ भी दूसरा बनाया गया।) यह द्रव्यपूति का उदाहरण है। १०९. आधाकर्म आदि उद्गम दोष के विभागों के अवयव मात्र के मिश्रण से स्वरूपतः शुद्ध आहार भी मुनि के शुद्ध-निरतिचार चारित्र को अशुद्ध कर देता है, यह भावपूति है। ११०. आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, बादरप्राभृतिका, पूति तथा अध्यवपूरक-ये सब उद्गम कोटि अर्थात् अविशोधि कोटि के अन्तर्गत हैं। १११. भावपूति के दो प्रकार हैं-बादर और सूक्ष्म । सूक्ष्म के विषय में आगे कहूंगा। बादर भावपूति के दो प्रकार हैं-उपकरण विषयक तथा भक्तपान विषयक। ११२. आधाकर्म युक्त चूल्हा, स्थाली, लकड़ी की बड़ी कड़छी, छोटी कड़छी–इनसे मिश्रित या स्पृष्ट शुद्ध अशन आदि भी पूति हो जाता है। आधाकर्मिक शाक, लवण, हींग से मिश्रित करना तथा संक्रामणआधाकर्म से संस्पृष्ट थाली आदि में शुद्ध अशन रखना या पकाना, स्फोटन-आधाकर्मिक राई आदि से भोजन को संस्कारित करना तथा हींग आदि का बघार देना-यह सारा भक्तपान विषयक पूति है। ११३. सीझते हुए अन्न के लिए चुल्ली आदि तथा पक्व दीयमान भक्तपान के लिए कुड़छी आदि उपकारी होते हैं इसलिए ये उपकरण कहलाते हैं। चुल्ली, स्थाली, चम्मच, बड़ी कुड़छी-ये सारे उपकरण हैं। ११३/१. आधाकर्म के आधार पर चुल्ली और उक्खा (स्थाली) के चार विकल्प हैं
१. चुल्ली आधाकर्मिकी, स्थाली भी। २. चुल्ली आधाकर्मिकी, स्थाली नहीं। ३. स्थाली आधाकर्मिकी, चुल्ली नहीं। ४. न स्थाली आधाकर्मिकी और न चुल्ली।
प्रथम तीन विकल्प अकल्प्य हैं। चुल्ली आदि पर पकाने तथा अन्य स्थान से लाकर वहां स्थापित करने पर वह प्रतिषिद्ध है। वही आहार यदि अन्यत्र गया हुआ लिया जाए तो अनुज्ञात है। ११३/२. आधाकर्मिक कर्दम से मिश्रित चुल्ली और स्थाली उपकरणपूति है। यदि इसी प्रकार डोय, बड़ी कुड़छी का अग्रभाग अथवा दंड-इन दोनों में से एक आधाकर्मिक होता है तो वह उपकरणपूति होता है।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १७। २. निशीथभाष्य में विस्तार से पूतिदोष का वर्णन किया गया है। वहां बादरपूति के तीन भेद किए गए हैं-१. आहार २. उपधि
और वसति। विकल्प से आहारपूति के दो भेद किए हैं-१. उपकरणपूति और आहारपूति। (निभा ८०६,८०७) उपधि पूति के वस्त्र और पात्र दो भेद किए गए हैं तथा वसतिपूति के मूलगुण और उत्तरगुण के अन्तर्गत सात-सात भेद किए हैं (निभा ८११), मूलाचार (४२८) में पूति के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं-१.चुल्ली २. उक्खलि (ऊखल) ३. दर्वीचम्मच ४. भाजन ५. गंध।
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