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पिंडनिर्युक्ति
१२६. स्थापित दोष के दो प्रकार हैं- स्वस्थान स्थापित तथा परस्थान स्थापित । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं - अनन्तर, परंपर। घृत आदि द्रव्य अनन्तर स्थापित होते हैं, उनमें कोई विकार नहीं होता ।) दूध आदि परंपर स्थापित होता है ।' तीन घर के बाद साधु के निमित्त से लाई गई भिक्षा स्थापित होती है ।" १२७. छब्बग- बांस की टोकरी, वारक- लघु घट आदि अनेकविध परस्थान हैं। पिठर, छब्बग आदि स्वस्थान हैं। चुल्ली - अवचुल्ली से दूर प्रदेशान्तर में स्थित होने से ये परस्थान हैं।
१२८. स्वस्थान स्थापना तथा परस्थान स्थापना के दो-दो भेद हैं- अनन्तर और परंपर। जिस स्थापित द्रव्य का विकार संभव नहीं है, कर्ता के द्वारा उसको विकृत नहीं किया जाता, वह साधु के निमित्त अनन्तर स्थापित है ।
१२८/१. इक्षुरस, दूध आदि विकारी द्रव्य हैं (इनसे कक्कब तथा दधि आदि विकार संभव है)। घृत, गुड़ आदि अविकारी द्रव्य हैं। ओदन और दधि आदि भी करम्ब रूप में परिवर्तित होते हैं अतः विकारी हैं । लम्बे समय तक रखने से ये कुथित - दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं अतः विकारी द्रव्य हैं ।
१२८/२, ३. किसी साधु ने एक गृहिणी से दूध की याचना की। उसने कहा- 'कुछ समय बाद दूंगी।' साधु को अन्यत्र दूध मिल गया। दूध हेतु गृहिणी के कहने पर मुनि बोला- 'मुझे अभी दूध प्राप्त हो गया प्रयोजन होने पर ग्रहण करूंगा।' ऐसा कहने पर ऋण से भयभीत गृहिणी ने उस दूध का उपभोग नहीं किया। 'कल मैं मुनि को इस दूध का दही जमाकर दूंगी', यह सोचकर उसने उसे स्थापित कर दिया। दूसरे दिन भी मुनि ने दही नहीं लिया, तब गृहिणी ने उसका नवनीत, मस्तु और तक्र बना दिया। नवनीत का घृत बना दिया। यदि गृहिणी इन सबको अपने कुटुम्ब के लिए होंगे, इस प्रकार आत्मार्थीकृत कर लेती है तो
१. दूध में विकार होता है। दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी। जो साधु के निमित्त दूध स्थापित कर उसमें से घी निकाल कर देता है, वह दूध परंपर स्थापित होता है। इसकी व्याख्या हेतु देखें गाथा १२८/ २, ३ का अनुवाद एवं टिप्पण ( मवृ प. ८९ ) ।
२. हाथ में रखी हुई भिक्षा तीन घर तक निर्दोष होती है, तीन घर के बाद जब तक गृहान्तर नहीं होता, तब तक वह स्थापना नहीं है। गृहान्तर आने पर साधु के निमित्त लाई गई हस्तगत भिक्षा स्थापना दोष के अंतर्गत आती है क्योंकि फिर वहां उपयोग असंभव है (मवृ प. ८९ ) ।
३. पाक-भाजन तथा चुल्ली - अवचुल्ली को छोड़कर शेष सब भाजन स्वस्थान और परस्थान दोनों हैं। टीकाकार ने यहां स्वस्थान और परस्थान के आधार पर चतुर्भंगी दी है
१. स्वस्थान में स्वस्थान ।
२. स्वस्थान में परस्थान ।
३. परस्थान में स्वस्थान ।
४. परस्थान में परस्थान ( मवृ प. ९० ) ।
४. जैसे दूध यदि दधि आदि के रूप में परिकर्ममाण न होकर उसी दिन दूध रूप में ही स्थापित होता है तो वह अनन्तर स्थापित है । इसी प्रकार स्थापित इक्षु रस भी उसी दिन दिया जाता है तो वह अनंतर स्थापित है, उसका गुड़ आदि बनाने पर वह परम्पर स्थापित होता है ( मवृ प. ९० ) ।
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