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अनुवाद
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८९/८. मुनि के पूछने पर सरल स्वभावी दानदात्री कहती है-"यह अशन आदि आपके लिए बनाया गया है।" जो दात्री माया युक्त होती है, वह कहती है, यह घर के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं परन्तु घर के अन्य सदस्य यह सुनकर एक-दूसरे को देखते हैं अथवा लज्जा से एक-दूसरे को देखकर हंसते हैं, ऐसी स्थिति में उसे आधाकर्म जानकर मुनि उसका वर्जन करते हैं। पूछने पर जब दानदात्री रुष्ट होकर कहती है-'मुने ! आपको क्या चिन्ता है, क्या तप्ति है?' ऐसी स्थिति में आधाकर्म की आशंका न करके मुनि उस द्रव्य को ग्रहण करे। ८९/९. जो श्रावक-श्राविकाएं गूढ आचार वाले होते हैं, वे न आदर करते हैं और न पूछने पर सद्भाव का कथन करते हैं। द्रव्य आदि की अल्पता को देखकर मुनि पृच्छा नहीं करते, ऐसी स्थिति में वह देय वस्तु यदि अशुद्ध है, आधाकर्म दोष से दुष्ट है तो वहां साधु की शुद्धि कैसे होगी? इस प्रकार जिज्ञासा करने पर गुरु कहते हैं९०. प्रासुकभोजी' मुनि भी यदि आधाकर्म आहार ग्रहण करने में परिणत होता है तो वह अशुभ कर्मों का बंधक होता है। शुद्ध भोजन की गवेषणा करता हुआ यदि आधाकर्म भी ग्रहण कर लेता है, खा लेता है तो वह शुद्ध है क्योंकि वह शुद्ध परिणाम वाला है। ९०/१. संघ-भोज्य की बात सुनकर कोई मुनि शीघ्र ही उस गांव में गया। सेठ की पत्नी ने पहले ही सारा संघभक्त दे दिया था। पुनः मांगने पर सेठ बोला-'मेरे लिए बनाए भोजन में से साधु को दो।' पत्नी ने भोजन दिया। मुनि ने खाते हुए सोचा, यह संघभक्त स्वादिष्ट है। (शुद्ध आहार होते हुए भी वह मुनि आधाकर्म के परिभोग से उत्पन्न कर्मों से बंध गया।) ९०/२-४. मासिक तप के पारणे हेतु तपस्वी मुनि समीपवर्ती गांव में गया। श्राविका ने मुनि के लिए खीर बनाई और सोचा कि शायद आज वह क्षपक यहां आएगा। मुनि को आशंका न हो इसलिए शरावों में थोड़ीथोड़ी खीर डाली, उसे बाहर खीर से खरंटित करके बालकों को समझा दिया। रोष सहित अनादर के साथ साधु को खीर, घृत और गुड़ आदि की भिक्षा दी। साधु भिक्षा लेकर एकान्त में गया और चिंतन करने लगा-"यदि कोई साधु आकर संविभागी बने तो मैं कृतार्थ हो जाऊं।" शरीर से अमूर्च्छित होकर समभाव से उसने वह भोजन किया। आधाकर्मी आहार करने पर भी उसे केवलज्ञान हो गया।' ९१. राजा के दो उद्यान थे-सूर्योदय और चन्द्रोदय। उन उद्यानों में जाने पर आज्ञा-भंग करने वालों को दंड दिया गया। ९१/१-३. (राजा ने घोषणा की-) प्रातः अंत:पुर के साथ मैं सूर्योदय उद्यान में जाऊंगा अतः तृणहारक और काष्ठहारक चन्द्रोदय उद्यान में जाएं। राजा ने सोचा कि सूर्योदय उद्यान में प्रात: जाते और सायं आते
१. टीकाकार के अनुसार प्रासुकभोजी का अर्थ यहां एषणीयभोजी है (मवृ प. ७४)। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १३। ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १४। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १५।
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