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पिंडनियुक्ति
८७. वर्ण आदि से युक्त बलि-उपहार, जो तिलक्षोद से बना हुआ है, उस पर नारियल आदि फल का शिखर किया हुआ हो। यदि वह सुंदर बलि अशुचि के कण मात्र से भी स्पृष्ट हो जाता है तो वह अभोज्य हो जाता है। (इसी प्रकार निर्दोष आहार भी आधाकर्म के अवयव से संस्पृष्ट होने पर अभोज्य हो जाता है।) ८८. जिस पात्र में आधाकर्म आहार लिया, उस भाजन से आधाकर्म आहार निकाल दिया परन्तु उस पात्र को अकृतकल्प अर्थात् कल्पत्रय' से प्रक्षालित नहीं किया, उस पात्र में यदि पुनः शुद्ध आहार भी डाल दिया जाए तो वह अभोज्य होता है। अथवा पात्र में शुद्ध आहार लिया और यदि उसमें आधाकर्म आहार का कण मात्र भी गिर जाए तो वह आहार अभोज्य होता है। ८९. आधाकर्म आहार वान्त और उच्चार (मल) सदृश है। उसे सुनकर भी पंडित पुरुष भयभीत हो जाता है, उसका परिहार करता है। परिहार दो प्रकार से होता है-विधिपूर्वक तथा अविधिपूर्वक। ८९/१-३. महिला के हाथ में शाल्योदन देखकर एक अकोविद साधु ने महिला से पूछा-'ये शाल्योदन कहां से आए हैं ?' महिला ने कहा—'यह बात वणिक् जानता है अतः उसके पास जाकर पूछो।' बाजार में जाकर उसने वणिक् से शाल्योदन के बारे में पूछा। वणिक् बोला-'मगध के प्रत्यन्तवर्ती गोबरग्राम से शालि आया है।' वह वहां जाने लगा। आधाकर्म की आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप और हिंस्र पशुओं से युक्त मार्ग पर चलने लगा। उत्पथ पर जाने से वह दिग्भ्रमित हो गया। आधाकर्म की आशंका से वह वृक्ष की छाया का भी परिहार करने लगा। गर्मी से तप्त होकर वह मूर्च्छित होकर क्लेश प्राप्त करने लगा। (यह अविधि-परिहरण का उदाहरण है।) ८९/४. जो इस प्रकार अविधि से आधाकर्म का परिहार करता है, वह ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। विधिपूर्वक परिहार के चार घटक हैं-द्रव्य, कुल, देश और भाव। ८९/५, ६. ओदन, मांड, सत्तू, कुल्माष आदि द्रव्य हैं। थोड़े व्यक्तियों अथवा बहुत व्यक्तियों का कुल होता है। सौराष्ट्र आदि देश हैं। आदर अथवा अनादर-यह भाव होता है। स्वयं देना आदरभाव है, नौकर आदि अन्य व्यक्तियों से दिलाना अनादरभाव है। इन पदों की योजना चतुष्पदा अथवा त्रिपदा-विकल्प से दो प्रकार की होती है। ८९/७. विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, कुल छोटा हो और प्राप्ति अधिक हो तथा अत्यधिक आदरभाव हो तो आधाकर्म की संभावना होती है। ऐसी स्थिति में पृच्छा करनी चाहिए। विवक्षित देश में लब्ध प्रचुर द्रव्य के विषय में, चाहे आदर न हो तो पृच्छा आवश्यक नहीं होती। (जैसे मालवदेश में मंडक घर-घर में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं रहती।)
१. कल्पत्रय की व्याख्या हेतु देखें गा. ११७/३ का टिप्पण। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १२।
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