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पिंडनिर्युक्ति
'कृत' साधु के लिए 'निष्ठित' की चतुर्भंगी होती है, इसमें दूसरा और चौथा भंग कल्पनीय होता है, जैसे— साधु के लिए कृत, साधु
'लिए निष्ठित ।
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साधु के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित ।
गृहस्थ के लिए कृत, साधु के लिए निष्ठित ।
गृहस्थ के लिए कृत, गृहस्थ के लिए निष्ठित ।
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८२. आधाकर्म विषयक चार दोष होते हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । इन चारों का निदर्शन जानना चाहिए। पहला है अतिक्रम अर्थात् आधाकर्म के लिए निमंत्रण ।
८२ / १. कोई नया श्रावक मुनि के लिए निष्पादित शालि, घृत, गुड़, गोरस तथा मुनि के लिए अचित्त किए गए नए वल्ली फलों का दान देने के लिए मुनि को निमंत्रण देता है।
८२ / २. जो मुनि आधाकर्म ग्रहण करके उसका परिभोग करता है, वह अतिक्रम आदि चारों दोषों का सेवन करता है । इस विषय में नूपुरहारिका का उदाहरण है - नूपुरहारिका कथानक में राजा के हाथी द्वारा एक, दो, तीन तथा चारों पैरों को ऊपर उठाना।
८२/३. जो आधाकर्म के निमंत्रण को स्वीकार करता है, वह अतिक्रम दोष का सेवन करता है । उसको लाने के लिए पैर उठाना व्यतिक्रम दोष है। आधाकर्म को पात्र में ग्रहण करना अतिचार दोष तथा उसको निगलना र अनाचार दोष है ।
८३. जो पहले कहा था (गा. ६०) कि आधाकर्म ग्रहण करने में आज्ञाभंग आदि के दोष होते हैं, वे दोष ये हैं - आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना ।
८३ / ९. जो अशन आदि में लुब्ध होकर आधाकर्म ग्रहण करता है, वह सभी तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण करता है। जो आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष अनुष्ठानों का अनुपालन किसकी आज्ञा से करता है ?
८३/२. एक मुनि अकार्य करता है, (आधाकर्म का परिभोग करता है) तो दूसरे मुनि भी उसके विश्वास के आधार पर वही कार्य करने लग जाते हैं। इस प्रकार साताबहुल मुनियों की परम्परा से संयम और तप का विच्छेद होने से तीर्थ का विच्छेद होने लगता है। (यह अनवस्था दोष का उदाहरण है ।)
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. १० ।
२. जैसे हाथी छिन्न टंक वाले पर्वत पर एक, दो या तीन पैर ऊपर करने में समर्थ हो सकता है लेकिन चारों पैर ऊपर करने पर वह निश्चित रूप से भूमि पर गिर जाता है, वैसे ही अतिचार दोष तक साधु विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को शुद्ध करने में समर्थ हो सकता है किन्तु अनाचार होने पर संयम का नाश हो जाता है। टीकाकार कहते हैं कि यद्यपि कथानक दृष्टान्त में हाथी के द्वारा चारों पैर ऊपर नहीं उठाए गए लेकिन दाष्टन्तिक में बात को सिद्ध करने हेतु यह प्रतिपादन किया गया है (मवृ प. ६८ ) ।
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३. जीतकल्पभाष्य के अनुसार कुछ आचार्य आधाकर्म आहार को मुंह में रखने को अनाचार मानते हैं लेकिन वहां से साधु प्रतिनिवृत्त हो सकता है। वह पार्श्वस्थित श्लेष्मपात्र में थूक सकता है लेकिन निगलने के बाद प्रतिनिवृत्ति संभव नहीं है अतः आधाकर्म आहार को निगलना अनाचार मानना चाहिए (जीभा ११७९, ११८० ) ।
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