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अनुवाद
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८०. जो तण्डुल तीन बार प्रबलरूप से कंडित किए जाते हैं, वे 'निष्ठित' तथा एक या दो बार कंडित किए जाते हैं, वे 'कृत' कहलाते हैं। निष्ठित कृत ओदन को तीर्थंकरों ने दुगुना आधाकर्म माना है-एक आधाकर्म तो कृत तंडुल रूप और दूसरा आधाकर्म पाकक्रियारूप। ८०/१. कुछ आचार्य फल-पुष्प आदि के प्रयोजन से अथवा अन्य किसी प्रयोजन से साधु के लिए बोए गए वृक्ष की छाया का वर्जन करते हैं लेकिन यह उचित नहीं है। उस वृक्ष का फल भी दूसरे भंग में लेना कल्पनीय है अर्थात् साधु के लिए 'कृत' तथा गृहस्थ के लिए निष्ठित' रूप में। ८०/२. वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती क्योंकि छाया परप्रत्ययिका अर्थात् सूर्यहेतुकी होती है, वृक्षमात्रहेतुकी नहीं होती, जैसे–मालाकार वृक्ष को बढ़ाता है, वैसे ही छाया उसके द्वारा बढ़ाई नहीं जाती। जो उसे आधाकर्मिकी मानकर उसके नीचे बैठने का निषेध करते हैं फिर उनके अनुसार मेघाच्छन्न आकाश से वृक्ष की छाया लुप्त हो जाने पर उस वृक्ष के नीचे बैठना कल्पनीय हो जाएगा। ८०/३. छाया बढ़ती है, घटती है। वृक्ष की बढ़ती हुई छाया अनेक घरों का स्पर्श करती है, इससे वे सारे घर तथा आहार पूति दोष से दुष्ट होने पर कल्पनीय नहीं होंगे। (यह बात आगमोक्त नहीं है) सूर्य सुविहित मुनियों के लिए छाया का प्रवर्तन नहीं करता, वह स्वतः होती है इसलिए वह आधाकर्मिकी नहीं होती। ८०/४. आकाश में यत्र-तत्र विरल मेघों के घूमने पर उनसे छाया मिट जाती है तथा दिन में पुनः छाया हो जाती है। सूर्य के मेघाच्छन्न हो जाने पर उस वृक्ष के अध:स्तन प्रदेश का आसेवन कल्पता है परन्तु आतप में उसका विवर्जन करना चाहिए। (यह तथ्य न आगम सम्मत है और न पूर्वपुरुषों द्वारा आचीर्ण इसलिए यह असत् है।) ८०/५. इस प्रकार छाया संबंधी यह दोष संभव नहीं है, यह आधाकर्म विहीन है। इतना होने पर भी जो अति दयालु पुरुष उसका विवर्जन करते हैं तो वे दोषी नहीं हैं। ८१, ८१/१. गृहस्थ परपक्ष होते हैं तथा श्रमण और श्रमणी स्वपक्ष होते हैं, जो प्रासुक किया जाता है और रांधा जाता है, वह 'निष्ठित' अन्य सारा 'कृत' है। साधु के लिए कृत' तथा 'निष्ठित' तथा गृहस्थ के लिए
१. टीकाकार मलयगिरि ने इस प्रसंग में वृद्ध-सम्प्रदाय का उल्लेख करते हुए कहा है कि यदि चावलों को एक बार या दो बार साधुओं के लिए कंडित किया और तीसरी बार गृहस्थ ने अपने लिए कंडित किया और पकाया तो वे तण्डुल साधु के लिए कल्पनीय हैं। इस संदर्भ में अन्य परम्पराओं का भी उल्लेख है। पान, खादिम और स्वादिम आदि के बारे में भी कृत और निष्ठित को समझना चाहिए। साधु के लिए कूप आदि का खनन किया, उसमें से जल निकाला तथा उसे प्रासुक किया। जब तक वह पानी प्रासक नहीं होता, तब तक वह कत कहलाता है तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाता है। इसी प्रकार खादिम में ककडी आदि का वपन करके उसे निष्पन्न किया फिर उसे टुकड़ों में काटा, जब तक वे टुकड़े प्रासुक
नहीं हुए, तब तक कृत तथा प्रासुक होने के बाद निष्ठित कहलाते हैं (म प.६५, ६६)। २. टीकाकार के अनुसार वृक्ष के नीचे का कुछ भाग सचित्त कणों से संपृक्त होता है अतः वह पूति होता है। उस स्थान पर
बैठना कल्पनीय नहीं है लेकिन वृक्ष की छाया आधाकर्मिकी नहीं होती (मवृ प. ६६)।
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