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अनुवाद
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८३/३. जो मुनि यथावाद - आगमोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान नहीं करता, उससे बड़ा अन्य कौन क्योंकि वह दूसरों में आशंका पैदा कर मिथ्यात्व की परम्परा को आगे बढ़ाता
मिथ्यादृष्टि हो सकता है ?
है ।
८३/४. आधाकर्म आहार ग्रहण करता हुआ मुनि उसके ग्रहण - प्रसंग' को बढ़ावा देता है तथा अपनी और दूसरों की आसक्ति को बढ़ाता है । वह भिन्नदंष्ट्रा - अत्यन्त रसलम्पट मुनि सर्वथा निर्दयी बनकर सजीव पदार्थों को भी नहीं छोड़ता ।
८३ / ५. जो मुनि प्रचुर मात्रा में स्निग्ध आहार करता है, वह रुग्ण हो जाता है। रोगग्रस्त मुनि के सूत्र और अर्थ की हानि होती है। रोग - चिकित्सा में षट्काय की विराधना होती है। प्रतिचारकों के भी सूत्र और अर्थ की हानि होती है। परिचर्या के अभाव में रोगी मुनि स्वयं क्लेश को प्राप्त होता है। (सम्यक् परिचर्या न होने पर) वह परिचारकों पर कुपित होता है, इस स्थिति में वह परिचारकों के मन में भी क्लेश उत्पन्न करता है । ८४. आधाकर्म अकल्प्य कैसे ? उससे स्पृष्ट अन्य आहार अकल्प्य कैसे ? आधाकर्म भाजन वाले पात्र में डाला हुआ भोजन अकल्प्य कैसे ? उसके परिहार की विधि क्या ? कैसे लिया हुआ आधाकर्म भक्त दोषमुक्त होता है ? आदि के विषय में गुरु बताते हैं ।
८४/१. (आधाकर्म आहार, उससे स्पृष्ट अन्य पदार्थ, कल्पत्रय से अप्रक्षालित पात्र में डाला हुआ आहार - ) यह सारा अभोज्य है । अविधि - परिहार में गमन आदि के दोष तथा विधि- परिहार में द्रव्य, कुल, देश और भाव की पृच्छा करनी चाहिए। (इस प्रकार वर्तन करने वाले मुनि में छलना नहीं होती । ) यदि छलना होती है इस विषय में दो दृष्टान्त हैं ।
८५. जैसे सुसंस्कृत भोजन का वमन हो जाने पर वह 'वान्त' भोजन अभोज्य बन जाता है, वैसे ही असंयमपूर्वक वान्त आधाकर्म भोजन मुनि के लिए अनेषणीय और अभोज्य हो जाता है।
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८६. मार्जार के द्वारा मांस खाने पर मांस के इच्छुक (पति एवं जेठ) के लिए कुत्ते के द्वारा वान्त मांस को मसाले डालकर अन्य वर्ण वाला बनाने पर भी क्या वह भोजन खाद्य हो सकता है ? (कभी नहीं ) ।
८६/१. इस कथानक को कुछ आचार्य इस प्रकार कहते हैं--पथिक के अतिसार रोग होने पर उसने मल से मांसपेशी के टुकड़े व्युत्सर्जित किए। महिला ने उसे धोकर मसाले से संस्कारित करके ( पति एवं जेठ को) परोसा । पुत्र हाथ पकड़कर उनको खाने से रोका।
८६/२. जिस प्रकार वेद आदि धार्मिक ग्रंथों में भेड़ी और ऊँटनी का दूध, लहसुन, प्याज, सुरा और गोमांस - ये सारी वस्तुएं असम्मत - अखाद्य हैं, उसी प्रकार जिनशासन में भी आधाकर्म भोजन अभोज्य और अपेय है।
१. एक बार यदि साधु आधाकर्म आहार ग्रहण कर लेता है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ११ । तो मनोज्ञ रस की लोलुपता से वह बार-बार ग्रहण करने ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ११ का टिप्पण । में प्रवृत्त होता है ( मवृ प. ६९ ) ।
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