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पिंडनियुक्ति
७३/१४. लिंग से साधर्मिक लेकिन अभिग्रह से नहीं, इस भंग में विभिन्न अभिग्रहधारी साधु, प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक तथा निह्नव आदि आते हैं। इनमें निह्नव और श्रावक के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है। अभिग्रह से साधर्मिक, लिंग से नहीं-इस द्वितीय भंग में प्रत्येकबुद्ध, तीर्थंकर और प्रतिमारहित श्रावक आते हैं। इनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य है।' ७३/१५. लिंग और अभिग्रह की चतुर्भंगी की भांति लिंग और भावना से साधर्मिक की चतुर्भंगी समझनी चाहिए। दर्शन और ज्ञान विषयक चतुर्भंगी के प्रथम भंग में दर्शन से साधर्मिक ज्ञान से नहीं, इसमें विभिन्न ज्ञान वाले समान दर्शन वाले साधु तथा श्रावक आते हैं। इसमें श्रावक के लिए कृत आहार कल्प्य है। इसी प्रकार ज्ञान से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इस दूसरे भंग को जानना चाहिए।' ७३/१६. दर्शन और चारित्र की चतुर्भंगी में प्रथम भंग है-दर्शन से साधर्मिक चारित्र से नहीं, इसमें समान दर्शन वाले श्रावक तथा विसदृश चारित्र वाले साधु आते हैं। (इसमें श्रावकों के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है पर साधु के लिए बनाया हुआ अकल्पनीय है।) चारित्र से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इस द्वितीय भंग में विसदृश दर्शनी और समान चारित्र वाले साधु आते हैं (इनके लिए कृत आहार अकल्प्य है।)। अब मैं दर्शन और अभिग्रह के बारे में कहूंगा। ७३/१७. समान दर्शन तथा विभिन्न अभिग्रह वाले श्रावक और साधु दर्शन से साधर्मिक हैं लेकिन अभिग्रह से नहीं, यह प्रथम भंग है। दूसरे भंग में अभिग्रह से साधर्मिक दर्शन से नहीं, इसमें भी साधु और श्रावकों का समावेश होता है। वे साधु और श्रावक विसदृश दर्शन तथा समान अभिग्रह वाले होते हैं। (टीकाकार ने अंतिम दो भंगों की भी व्याख्या की है।) दर्शन और भावना की चतुर्भंगी को भी इसी रूप में जानना चाहिए। ज्ञान के साथ चारित्र आदि पदों की चतुर्भंगी जाननी चाहिए। अब चारित्र के साथ ज्ञान आदि की चतुर्भंगी कहूंगा।
१. मलयगिरि ने कुछ आचार्यों का मंतव्य प्रस्तुत करते हुए कहा है कि एकादश प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक साधु जैसे ही होते हैं
अत: उनके लिए किया हुआ आहार साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता। इस मत का टीकाकार ने निरसन किया है तथा मूल टीकाकार का उद्धरण देते हुए कहा है कि लिंगयुक्त एकादश प्रतिमाधारी श्रावक के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय होता है (मवृ प. ६२)। २. गाथा में नियुक्तिकार ने केवल दो भंगों की ही व्याख्या की है लेकिन टीकाकार ने चारों भंगों का स्पष्टीकरण किया है। लिंग
से साधर्मिक तथा अभिग्रह से भी साधर्मिक-इस तृतीय भंग में साधु, एकादश प्रतिमा प्रतिपन्न श्रावक तथा निह्नव आदि आते हैं। इनमें भी श्रावक और निहव के लिए कृत आहार साधु के लिए कल्पनीय है। चौथा भंग है न लिंग से साधर्मिक और न ही अभिग्रह से, इस चतुर्थ भंग में विसदृश अभिग्रह वाले तीर्थंकर, प्रत्येकबुद्ध और एकादश प्रतिमा रहित श्रावक
आते हैं, इनके लिए कृत आहार कल्प्य है (मवृ प.५८)। ३. इस चतुर्भगी के विस्तार हेतु देखें मवृ प.५८ ४. टीकाकार ने तृतीय और चतुर्थ भंग का उल्लेख भी किया है (देखें मवृ प. ५९)। ५. बाकी के तीसरे और चौथे भंग के विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५९ । ६. विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५९ । ७. विस्तार हेतु देखें मवृ प.६०॥
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