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पिंडनियुक्ति
चाहिए। यदि श्रमण और साधु के लिए संकल्प किया है तो विसदृश अर्थात् भिन्न नाम वाले साधु को भी वह आहार नहीं कल्पता। ७३/६. स्थापना साधर्मिक के संबंध में निश्रा या अनिश्रा से निष्पादित द्रव्य के लिए यह विभाषा करनी चाहिए। द्रव्य साधर्मिक के विषय में मृततनुभक्त-तत्काल मृत साधु के शव के पास रखने के लिए उपस्कत अन्न आदि का मनि विवर्जन करे क्योंकि इससे लोक में निंदा होती है।
७३/७. जैसे नाम साधर्मिक के प्रसंग में पाषंडी (अन्य दर्शनी), श्रमण, गृही-अगृही तथा निग्रंथों का विवरण दिया है, वैसे ही क्षेत्र और काल के विषय में जानना चाहिए।
१. पाषंडी संबंधी मिश्र और अमिश्र की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है-जितने भी देवदत्त नामक पाषंडी
(अन्यदर्शनी) हैं, उनको मैं भोजन दूंगा, गृहस्थ द्वारा किया गया यह संकल्प मिश्र है। इस संकल्प में देवदत्त नामक साधु को वह आहार नहीं कल्पता क्योंकि पाषंडी देवदत्त से सभी साधुओं का ग्रहण हो जाता है। जितने सरजस्क पाषंडी अर्थात् बौद्ध दर्शनी देवदत्त नामक साधु हैं, उनको आहार दूंगा, इस संकल्प में साधु को वह आहार कल्पनीय है। जैसे पाषंडी शब्द की मिश्र और अमिश्र से संबंधित व्याख्या की है, वैसे ही श्रमण से संबंधित भी मिश्र और अमिश्र के आधार पर व्याख्या करनी चाहिए।
निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक-ये पांच प्रकार के श्रमण होते हैं। यदि गृहस्थ ने मिश्र संकल्प किया कि जितने देवदत्त नामक श्रमण हैं, उनको भोजन दूंगा तो देवदत्त नामक साधु को वह आहार नहीं कल्पता। यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि निर्ग्रन्थ साध के अतिरिक्त सभी श्रमणों को भिक्षा दूंगा तो वह आहार साध के लिए कल्पनीय है। यदि कोई यह संकल्प करे कि मैं देवदत्त नामक सभी संयतों को आहार दूंगा तो इससे भिन्न नाम वाले चैत्र नामक साधु को भी वह अन्नपान नहीं कल्पता क्योंकि वह साधु के निमित्त किया गया आहार है। टीकाकार इसकी विशद व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यदि तीर्थंकर या प्रत्येकबुद्ध के नाम से संकल्प किया गया है तो साधु को वह आहार कल्पता है क्योंकि तीर्थकर और प्रत्येकबुद्ध संघ से अतीत होते हैं, वे साधुओं के साधर्मिक नहीं होते (मवृ प. ५३, ५४)। २. यदि कोई गृहस्थ प्रव्रजित पिता के दिवंगत होने पर या जीवित रहने पर स्नेहवश उनकी प्रतिकृति बनवाकर उनके लिए
नैवेद्य तैयार करवाता है तो वह दो प्रकार का होता है-निश्राकृत २. अनिश्राकृत। यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि रजोहरणधारी मेरे पिता की प्रतिकृति को मैं नैवेद्य दूंगा तो वह निश्राकृत नैवेद्य कहलाता है। यदि बिना संकल्प के सामान्य रूप से नैवेद्य तैयार करता है तो वह अनिश्राकृत कहलाता है। निश्राकृत नैवेद्य अकल्प्य होता है। अनिश्राकृत नैवेद्य कल्प्य है लेकिन लोक-व्यवहार के विरुद्ध होने से आचार्यों ने उसका निषेध किया है।
इसी प्रकार तत्काल दिवंगत साधु के शरीर के सामने रखने के लिए जो आहार तैयार किया जाता है, वह मृततनुभक्त कहलाता है। यह भी निश्राकृत और अनिश्राकृत भेद से दो प्रकार का होता है। साधु को दूंगा इस संकल्प से तैयार किया गया भक्त निश्राकृत तथा केवल पितृभक्ति से बिना किसी संकल्प से बनाया गया भक्त अनि श्राकृत कहलाता है। निश्राकृत भक्त साधु के लिए अकल्प्य है। अनिश्राकृत कल्पनीय है लेकिन लोक में निंदा होती है कि ये साधु कैसे हैं, जो मतभक्त
का भी परिहार नहीं करते हैं अतः साधु को उस भक्त का वर्जन करना चाहिए (मव प.५४)। ३. यदि गृहस्थ संकल्प करे कि सौराष्ट्र देश में उत्पन्न पाषंडियों को भिक्षा दूंगा तो सौराष्ट्र देश में उत्पन्न साधु के लिए वह
आहार कल्पनीय नहीं है लेकिन अन्य देश में उत्पन्न साधु के लिए कल्पनीय है। (विस्तार हेतु देखें मवृ प. ५५, गा. ७३/
४,५ का टिप्पण)। ४. काल की अपेक्षा से यदि गृहस्थ संकल्प करे कि विवक्षित दिन में उत्पन्न पाषंडियों को मैं दान दूंगा तो उस दिन उत्पन्न
साधु को वह आहार नहीं कल्पता है, शेष दिन में उत्पन्न साधुओं के लिए वह आहार कल्पनीय है (मवृ प.
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