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पिंडनियुक्ति
६४/२. आधाकर्मग्राही मुनि अधोगति का आयुष्य बांधता है तथा अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख करता है। वह तीव्र-तीव्रतर भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति, निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का चय-उपचय करता है। ६४/३. उन भारी कर्मों के उदय से वह आधाकर्मग्राही मुनि दुर्गति में गिरती हुई अपनी आत्मा को नहीं बचा सकता। वे कर्म उसे अधोगति में ले जाते हैं। ६५. जो प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन जानते हुए अथवा अनजान में षड्जीवनिकाय का प्राणव्यपरोपण करता है, उसे द्रव्य आत्मघ्न कहते हैं। ६६. द्रव्य आत्मा षट्काय हैं । ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन भाव आत्मा हैं, जो प्राणियों के प्राणों का विनाश करने में रत है, वह अपनी चरणरूप भाव आत्मा का हनन करता है। ६६/१. निश्चयनय के अनुसार चारित्र के विघात से ज्ञान और दर्शन का घात होता है। व्यवहारनय के अनुसार चरण-चारित्र का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन के विघात की भजना है। ६७. जो पुरुष जिस द्रव्य को-यह मेरा है-ऐसा कहता है, वह ममकार द्रव्य विषयक आत्मकर्म है तथा जो अशुभभाव में परिणत होकर परकर्म-पचन-पाचनादि कर्म से अपने आपको जोड़ता है, वह भाव विषयक आत्मकर्म है। ६७/१. आधाकर्म द्रव्य ग्रहण में परिणत मुनि संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। वह प्रासुक द्रव्य ग्रहण करता हुआ भी कर्मों से बंधता है अतः इसे आत्मकर्म जानना चाहिए। ६७/२. जो आधाकर्म को ग्रहण कर उसका उपभोग करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म कर लेता है। प्रश्न है परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त होती है ? ६७/३,४. कुछ व्यक्ति कूट दृष्टान्त के आधार पर कहते हैं कि जैसे व्याध कूट-पाश की स्थापना करता
१. भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म का भोग करने वाला साधु आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म
प्रकृतियों के शिथिल बंधन को गाढ़ बंधन वाली, अल्पस्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली, मंद विपाक वाली प्रकृतियों को तीव्र विपाक वाली तथा अल्प प्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली
करता है। आयुष्य का बंधन कभी करता है, कभी नहीं करता (भ. १/४३६)। २. इस गाथा के अन्तर्गत प्रश्न का उत्तर अगली गाथा में दिया गया है। टीकाकार इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
परक्रिया कभी भी दूसरे में संक्रान्त नहीं हो सकती। यदि ऐसा संभव हो तो क्षपक श्रेणी में आरूढ़ मुनि करुणावश सबके
कर्मों को अपने भीतर संक्रमण करके उनका क्षय कर सकता है लेकिन ऐसा संभव नहीं है (मवृ प. ४४)। ३. टीकाकार मलयगिरि और अवचूरिकार के अनुसार मृग और कूट का दृष्टान्त यशोभद्रसूरि का है। उनके अनुसार दक्ष और
अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है और यदि किसी कारणवश वह जाल में फस भी जाता है तो जाल बंध होने से पहले तत्काल वहां से निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग बंध ही जाता है अत: केवल परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु के पाप कर्म का बंधन नहीं होता। जो अशुभ अध्यवसाय से उसको ग्रहण करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म बनाता है। यहां उपचार से आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है (मवृ प. ४४, ४५)।
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