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अनुवाद
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है, उसमें मृग ही बंधनग्रस्त होते हैं, व्याध नहीं। इसी प्रकार गृहस्थ पचन-पाचन करता है, उसके बंध नहीं होता, जो ग्राहक है उसके बंध होता है। (इस आशंका का उत्तर देते हुए) गुरु कहते हैं-जैसे पाश में प्रमत्त
और अदक्ष मृग ही बंधनग्रस्त होता है, उसी प्रकार भावकूट में वही साधु बंधता है, जो अशुभभाव में परिणत होता है इसलिए प्रयत्नपूर्वक अशुभभावों का वर्जन करना चाहिए। ६७/५. यह सम्मत बात है कि कोई मुनि न स्वयं आधाकर्म करता है और न करवाता है परन्तु आधाकर्म को जानता हुआ भी जो उसे ग्रहण करता है, वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जो उसको ग्रहण नहीं करता है, वह उसका निवारण करता है। ६८. साधु प्रतिषेवणा आदि से परकर्म को आत्मसात् करता है। (गाथा ६१ में आए) प्रतिषेवणा आदि चार पदों में आदिपद-प्रतिषेवणा सब से गुरु है, प्रधान है, शेष क्रमश: लघु, लघु, लघुक हैं, (जैसे-प्रतिषेवणा की अपेक्षा प्रतिश्रवण लघु, प्रतिश्रवण से संवासन लघु तथा संवासन से भी अनुमोदन लघुतर है।) ६८/१. यथासंभव प्रतिषेवणा से अनुमोदन तक के द्वारों के स्वरूप को उदाहरण सहित कहूंगा। ६८/२. दूसरे साधु के द्वारा आनीत आधाकर्म भोजन को जो खाता है, वह भी प्रतिषेवणा दोष से बंधता है। ऐसा करने वाले मुनि को कुछ कहने पर वह प्रत्युत्तर देता है कि इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि दूसरे के हाथ से अंगारे खींचने वाला स्वयं दग्ध नहीं होता। ६८/३. आधाकर्मी भोजन करता हुआ जो मुनि सोचता है कि 'मैं तो शुद्ध हूं', जो आधाकर्म देता है, वह दोषी है, मूढ़ है। इस अंगारे के मिथ्या दृष्टान्त द्वारा शास्त्रों के अर्थ को न जानता हुआ वह प्रतिषेवणा करता
६८/४. जो गुरु भिक्षा दिखाने के समय आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाले मुनि की चित्तसमाधि के लिए 'लाभ' इस शब्द का प्रयोग करते हैं तथा अमुक श्राविका ने श्रद्धापूर्वक यह आधाकर्म आहार दिया है, ऐसी
आलोचना करने पर 'सुलब्ध'-अच्छा प्राप्त हुआ, ऐसा कहते हैं तो वे आचार्य भी प्रतिश्रवण दोष के भागी होते हैं। ६८/५. संवास का प्रसिद्ध अर्थ है-आधाकर्म भोगने वालों के साथ रहना। आधाकर्म भोजी की प्रशंसा करना अनुमोदना है। इनके क्रमशः ये उदाहरण जानने चाहिए। ६८/६. प्रतिषेवणा में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास के अन्तर्गत पल्ली में रहने वाले वणिक् का तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का उदाहरण ज्ञातव्य है।
१. इस गाथा में मान्यता विशेष का उल्लेख है लेकिन यह जिनवचन के विरुद्ध है क्योंकि समारम्भ कर्ता गृहस्थ के नियमत:
कर्मबंध होता ही है। साधु यदि प्रमत्त है तो उसके भी आधाकर्म ग्रहण से पापकर्म का बंध होता है केवल परप्रयोग मात्र से कर्मबंध नहीं होता (मवृ प. ४५)।
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