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अनुवाद
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६१. आधाकर्म के ये नाम हैं-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न, आत्मकर्म, प्रतिषेवणा', प्रतिश्रवण, संवास, अनुमोदना। ६१/१. प्रत्यञ्चा का आधार धनुष, यूप का आधार बैल का कंधा, कापोती का आधार मनुष्य का कंधा, अनाज आदि के भार का आधार वाहन तथा कुटुम्ब, राज्य आदि की चिन्ता का आधार हृदय होता है, ये सब द्रव्य आधा के उदाहरण हैं। ६२. जिसके लिए मन में सोचकर औदारिक शरीर वाले प्राणियों का अपद्रावण तथा विनाश करके द्रव्य निष्पादित किया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। ६३. जल आदि में डालने पर द्रव्य का अपने भार के कारण नीचे जाना है तथा नि:सरणी और रज्जु आदि से नीचे अवतरण करना द्रव्य अध:कर्म है। ६४. संयमस्थान, कंडक-संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति विशेष में वर्तमान शुभ अध्यवसाय को जो हीन-नीचे से नीचे करता है, वह भाव अध:कर्म है। ६४/१. किंचित् न्यूनचरणाग्र-उपशांतमोह की अवस्था में वर्तमान मुनि अपने भावों-संयमस्थानों का आत्मा में हीन, हीनतर रूप में अवतरण करके आधाकर्म द्रव्य को ग्रहण करता है, वह भी अपनी आत्मा को नीचे से नीचे ले जाता है।'
१. प्रतिषेवणा आदि दोषों से आधाकर्म का प्रयोग होता है अतः कारण में अभेद का उपचार करके प्रतिषेवणा, प्रतिश्रवण
संवास और अनुमोदना को आधाकर्म के नाम के रूप में स्वीकार किया है (मवृ प. ३६)। २. टीकाकार मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्य के होता है। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण होता है। एकेन्द्रिय में सूक्ष्म जीव भी होते हैं। सूक्ष्म होने के कारण उनका अपद्रावण मनुष्यों के द्वारा संभव नहीं है अत: उनका यहां ग्रहण क्यों किया गया है ? इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो जिस वस्तु से अविरत है, वह उस कार्य को नहीं करता हुआ भी परमार्थतः उसे करता हुआ जानना चाहिए, जैसे रात्रिभोजन से अविरत गृहस्थ रात्रिभोजन नहीं करता हुआ भी रात्रिभोजन के पाप से लिप्त होता है, वैसे ही गृहस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण से अविरत है अत: यहां साधु के लिए समारम्भ करते हुए वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण को
करते हैं (मवृ प. ३७)। भाष्यकार ने अपनी व्याख्या में सूक्ष्म एकेन्द्रिय का वर्जन किया है (पिभा १६)।। ३. भाष्यकार ने उद्दवण-अपद्रावण का अर्थ अतिपात रहित पीड़ा किया है। साधुओं के लिए शाल्योदन आदि पकाने में
वनस्पतिकाय का जब तक प्राणातिपात नहीं होता, उससे पूर्व की सारी पीड़ा अपद्रावण कहलाती है (पिभा १६) जैसे साध के लिए शाल्योदन पकाने में शालि का दो बार कण्डन किया जाता है, तब तक कण्डन कृत पीड़ा अपद्रावण
कहलाती है। तीसरी बार कण्डन करने में शालि जीवों का अवश्य ही अतिपात हो जाता है (मवृ प. ३७)। ४. अंगुल मात्र क्षेत्र के असंख्येय भागगत प्रदेश राशि प्रमाण कंडक होते हैं । मलयगिरि ने यहां कंडक को स्पष्ट करने हेतु
एक पद उद्धृत किया है-'कण्डं ति इत्थ भण्णइ, अंगुलभागो असंखेज्जो' (मवृ प. ३९)। ५. संभव लगता है कि यहां ग्रंथकार ने आधाकर्म से होने वाले दोष की भयावहता को प्रकट करने के लिए कुछ कम चारित्र
वाले अर्थात् उपशान्तमोह चारित्र वाले का उदाहरण दिया है। यहां कहने का तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत (छठे गुणस्थान) वाले साधु की बात तो दूर, उपशांतमोह चारित्र (ग्यारहवां गुणस्थान) वाला साधु भी यदि आधाकर्म आहार को ग्रहण करता है तो वह अपनी आत्मा का अध: पतन कर लेता है (मवृ प. ४१)।
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