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आधाकर्म का परिहार
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में यथापृच्छा नामक सातवें द्वार में वर्णित तथ्य पिण्डनिर्युक्ति में विधि और अविधि परिहार के अन्तर्गत व्याख्यायित हैं । पिण्डनिर्युक्ति में यह प्रसंग नौ द्वारों की व्याख्या के बाद अलग से वर्णित है।
धाकर्म से होने वाले दोषों को जानकर साधु दो प्रकार से उसका परिहार करता है - १. विधि - परिहार २. अविधि - परिहार । जो साधु अविधि से आधाकर्म का परिहार करता है, वह न साधुत्व का सम्यक् पालन कर सकता है और न ही ज्ञान आदि का लाभ प्राप्त कर सकता है। अविधि - परिहार में ग्रंथकार ने एक भिक्षु की कथा का उल्लेख किया है। भिक्षु के द्वारा पूछने पर गृहस्वामी ने बताया कि यह शाल्योदन मगध के गोबरग्राम से आया है। वह उसकी जानकारी हेतु गोबरग्राम जाने लगा। मार्ग का निर्माण तो कहीं आधाकर्मी नहीं है, इस आशंका से वह मूल मार्ग को छोड़कर कांटे, सांप आदि से युक्त उन्मार्ग से जाने लगा तथा वृक्ष की छाया को भी आधाकर्मिक समझकर वृक्ष की छाया का भी परिहार करने लगा। वह रास्ते में ही मूर्च्छित होकर संक्लेश को प्राप्त करने लगा।
विधि-परिहरण में साधु चार बातों पर ध्यान देता है- द्रव्य, कुल, देश और भाव । इनकी व्याख्या करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि विवक्षित देश में असंभाव्य द्रव्य की उपलब्धि, छोटे परिवार में प्रचुर खाद्य की प्राप्ति तथा अत्यधिक आदरपूर्वक दान हो तो वहां आधाकर्म की संभावना हो सकती है। जो वस्तु जहां सामान्य रूप से लोगों के द्वारा प्रचुर रूप में काम में ली जाती है, वह यदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो तो पृच्छा की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे मालवा देश में मण्डक (एक प्रकार की रोटी) प्रचुर मात्रा में होता है, वहां उस द्रव्य के विषय में आधाकर्म की आशंका नहीं होती लेकिन वहां भी यदि परिवार छोटा हो और द्रव्य प्रचुर मात्रा में हो तो आधाकर्म की शंका हो सकती है। यदि कोई दाता अनादरपूर्वक दान दे रहा है, वहां भी प्रायः आधाकर्म की आशंका नहीं रहती क्योंकि जो दाता आधाकर्म आहार निष्पन्न करता है, वह प्रायः आदर भी प्रदर्शित करता है।
अमुक घर में आधाकर्म भोजन निष्पन्न हुआ है अथवा नहीं, इसकी परीक्षा करने की विधि को ग्रंथकार ने मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। मुनि के द्वारा पूछने पर यदि गृहस्वामिनी मायापूर्वक कहती है कि यह खाद्य-पदार्थ घर के सदस्यों के लिए बनाया गया है, आपके लिए नहीं। यह सुनकर यदि घर के अन्य सदस्य एक दूसरे को टेढ़ी नजरों से देखते हैं अथवा सलज्ज एक दूसरे को देखकर मंद हास्य करते हैं, तब साधु को उस देय वस्तु को आधाकर्मिक समझकर परिहार कर देना चाहिए। यदि पूछने पर दानदात्री
१. पिनि ८९ / १-३, मवृ प. ७२, ७३ ।
पिंडनिर्युक्त
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२. पिनि ८९/४-७, मवृ प. ७३ ।
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