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पिंडनिर्युक्ति
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का महत्त्व प्रतिपादित करता है। किसी भी उपाय से पुत्र पैदा न होने पर देवता के द्वारा औपयाचितक रूप
लोमश पुरुष द्वारा नियोग प्रयोग से पुत्र या पुत्री को उत्पन्न किया जाता था । मनुस्मृति के अनुसार भी नियोग-विधि से एक पुत्र की ही उत्पत्ति करनी चाहिए, दूसरे की नहीं। वहां लोमश पुरुष के स्थान पर घी चुपड़े व्यक्ति का उल्लेख है । अपनी घोड़ी से घोड़े को उत्पन्न करने के लिए रुपए देकर भी दूसरे के घोड़े से संयोग करवाते थे ।
व्यक्ति के मरने पर उसकी प्रतिमा बनवाकर नैवेद्य तैयार करवाकर उसे बंटवाया जाता था तथा पिता या माता के मृत्यु के दिन उनकी स्मृति में उस नाम के लोगों के लिए या सभी के लिए अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार भोज का आयोजन होता था।
समाज में दान देने की परम्परा थी। आम लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि यदि यहां दान नहीं देंगे तो परलोक नहीं सुधरेगा अतः दुर्भिक्ष के पश्चात् धनाढ्य लोग श्रमण, ब्राह्मण आदि के लिए पंचविध भिक्षा देते थे। महिलाएं स्मृति के लिए घर की दीवार पर लकीरें खींचकर रखती थीं कि कितनी प्रकार की भिक्षाएं दी जा चुकी हैं।"
गोमांस का प्रयोग बहुत बड़े पाप का हेतु माना जाता था। मृतक भोज का आयोजन होता था, जिसमें घेवर आदि मिष्ठान्न बनते थे । मृतकभोज को करडुयभक्त भी कहा जाता था।' उद्यापन में लड्डू आदि विशिष्ट खाद्य-पदार्थ बनाए जाते थे। विशिष्ट पर्व पर सेवई को घी और गुड़ के साथ खाया जाता था ।'
यातायात
नियुक्तिकार एवं टीकाकार ने प्रसंगवश यातायात के पथ एवं उसके साधनों का भी वर्णन किया है । सूत्रकृतांग के मार्ग अध्ययन की निर्युक्ति में निक्षेप के माध्यम से निर्युक्तिकार ने प्राचीन यातायात - पथ का विस्तृत विवेचन किया है। यातायात के मुख्यतः दो पथ प्रचलित थे- जल एवं स्थल । जलमार्ग को जंघा, दृति, बाहु और नौका के द्वारा तथा स्थल मार्ग को शकट, गधागाड़ी, बैलगाड़ी तथा पैदल पार किया जाता था । अक्षम व्यक्ति को कापोती - कांवड़ के द्वारा भी ले जाया जाता था। जलमार्ग में निम्न बाधाएं उपस्थित होती थीं
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गहरे पानी में निमज्जन ।
१. मवृ प. १२०, केनचिन्निजभार्यायाः कथमपि पुत्रासम्भवे देवताया औपयाचितकेन ऋतुकाले स्वसंप्रयोगेण च सुतः पुत्रिका वोत्पाद्यते ।
२. मनु ९/६० ।
३. पिनि १९४ / १, मवृ प. १२० ।
४. मवृ प. ५४ ।
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५. पिनि ९५/२, मवृ प. ७८ ।
६. मवृ प. ४७ ।
७. पिनि २१८/१, मवृ प. १३४ ।
८. मवृ प. १३४ ।
९. सूनि १०८, टी पृ. १३१ । १०. पिनि १५३ ।
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