________________
पिंडनियुक्ति
३१८/१. नत्थि छुहाय सरिसिया', वियणा भुंजेज्ज तप्पसमणट्ठा।
छाओ वेयावच्चं, न तरति काउं अओ भुंजे ॥ ६६३ ।। ३१८/२. 'इरियं न विसोहेती', 'पेहादीयं च संजमं काउं५ ।
थामो वा परिहायति', 'गुणऽणुप्पेहासु य असत्तो" ॥ ६६४ ॥ ३१९. अहव न कुज्जाहारं, छहिं ठाणेहि संजए।
पच्छा पच्छिमकालम्मि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ ६६५ ।। ३२०. आतंके उवसग्गे, 'तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु१९ । पाणिदया२-तवहेउं,
सरीरवोच्छेदणट्ठाए१३ ॥ ६६६ ॥ १. सरिसा (मु), सरसिया (स)।
१०. गाथा का प्रथम चरण आर्या में तथा अंतिम तीन २. जीभा १६५९, ओभा २९०।
चरण अनुष्टुप् छंद में है। ३. इरियव्व न सोहेई (ला, ब), इरियं च ण सोहेती ११. “गत्तीए (जीभा १६६४), तितिक्खणे बंभचेरगत्तीए (जीभा), इरियं न वि सोहेइ (ओभा २९१)।
(ठाणं ६/४२)। ४. पेहाईया (स)।
१२. पाण' (अ, ब)। ५. खहितो भमलीय पेच्छ अंधारं (जीभा)।
१३. ठाणं ६/४२, उत्त. २६/३४, प्रसा ७३८, ओभा २९२, ६. "यउ (स)।
तु. मूला ४८०, ओघनियुक्ति में यह गाथा भाष्य ७. पेहादी संजमं ण तरे (जीभा १६६०), ३१८/१, २ के क्रम में है लेकिन वहां संभव लगता है कि
-ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में निगा के क्रम मुद्रण की असावधानी से यह भाष्य गाथा के में हैं लेकिन इन दोनों गाथाओं के लिए टीकाकार साथ जुड़ गई है क्योंकि वहां आहार करने के छह 'एनामेव गाथां गाथाद्वयेन विवृण्वन्नाह' का उल्लेख कारणों वाली गाथा निगा के क्रमांक में है। करते हैं। संभव लगता है कि लिपिकार द्वारा पिंडनियुक्ति में इस गाथा की व्याख्या में दो गाथाएं प्रकाशित होते समय 'भाष्यकारः' शब्द छूट गया (३२०/१, २) हैं लेकिन जीतकल्प भाष्य में इस हो। ओघनियुक्ति में ये दोनों गाथाएं भाष्य गाथा के गाथा की व्याख्या निम्न ६ गाथाओं में विस्तार से क्रम में हैं तथा टीकाकार ने भी 'अधुनैतां गाथां की गई हैभाष्यकृत प्रतिपदं व्याख्यानयति' का संकेत किया आयंको जरमादी, तम्मुप्पण्णे ण भुजें भणितं च। है। ये गाथाएं स्पष्ट रूप से भाष्य की प्रतीत होती सहसुप्पइया वाही, वारेज्जा अट्ठमादीहिं ॥ हैं। इनको मूल निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है।
राया सण्णायादी, उवसग्गो तम्मि वी ण भंजेज्जा। आहार करने के छह कारणों की व्याख्या में जीभा
सहणट्ठा तु तितिक्खा, बाहिज्जंते तु विसएहिं ।। में निम्न दो गाथाएं और मिलती हैं। महत्त्वपूर्ण होने
भणितं च जिणिंदेहि, अवि आहारं जती ह वोच्छिंदे। के कारण उनका यहां निर्देश किया जा रहा है
लोगे वि भणिय विसया, विणिवत्तंते अणाहारे । आयु-सरीर-प्पाणादि, छव्विहे पाण ण तरती मोत्तुं । तद्धारण?तेणं, भुंजेज्जा पाणवत्तीयं ।।
तो बंभरक्खणट्ठा, ण वि भुंजेज्जा हि एवमाहारं । धम्मज्झाणं ण तरति, चिंतेउं पुव्वरत्तकालम्मि।
पाणदय वास महिया, पाउसकाले व ण वि भुजे॥ अहवा वी पंचविहं, ण तरति सज्झाय काउं जे॥ तवहेतु चउत्थादी, जाव तु छम्मासिओ तवो होति ।
(जीभा १६६१, १६६२) छटुं णिच्छिण्णभरो, छड्ढेतुमणो सरीरं तु॥ ८. कुज्ज आहारं (क, ओनि ५८१)।
असमत्थों संजमस्स उ, कतकिच्चोवक्खरं व तो देहं। ९. पश्चात-शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्त्तव्यानंतरम् (मव)। छड्डम्मि त्ति न भुंजइ, सव्वह वोच्छेय आहारं ॥
(जीभा १६६५-७०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org