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अनुवाद
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२२/२. शरीर के साथ लगे हुए आभ्यन्तर वस्त्र को तीन दिनों तक ऊपर ओढ़े फिर तीन दिनों तक उस प्रावरण को सोते समय बहुत दूर न रखे अर्थात् संस्तारक के किनारे पर रखे फिर एक रात शयन-स्थान पर अधोमुख वस्त्र को फैलाकर पैर पर्यन्त ओढ़कर सोए , तत्पश्चात् सूक्ष्म दृष्टि से वस्त्र का निरीक्षण करे। २२/३. कुछ आचार्यों की मान्यता के अनुसार (उपर्युक्त तीनों विश्रमणा-विधि को) तीन रात तक संवास करके सूक्ष्म दृष्टि से प्रतिलेखन करे। यदि षट्पदिका दिखाई न दे तो वस्त्र को प्रक्षालित करे। २२/४. (यदि वस्त्र-प्रक्षालन के लिए जल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त न हो तो) मुनि नीव्रोदक ग्रहण करे। कुछ एक आचार्य कहते हैं कि नीव्रोदक को अपने पात्र में ग्रहण करे। कुछ एक कहते हैं कि वह उदक अशुचि होता है अतः मुनि अपने पात्र में न ले, गृहस्थों के भाजन में ग्रहण करे। नीव्रोदक भी वर्षा रुक जाने के अन्तर्मुहूर्त पश्चात् ग्रहण करे । बरसती वर्षा में नीव्रोदक का जल मिश्र होता है। वर्षा के रुक जाने के पश्चात् लिए गए नीव्रोदक में राख डाली जाए, जिससे कि वह पुनः सचित्त न हो।' २२/५. मुनि पहले गुरु के, फिर प्रत्याख्यानी-तपस्वियों के, फिर ग्लान के, फिर शैक्ष के तथा तदनन्तर अपने वस्त्रों का प्रक्षालन करे। वस्त्रों में भी पहले यथाकृत' फिर अल्पपरिकर्मित और अंत में बहुपरिकर्मित' वस्त्रों का प्रक्षालन करे। २२/६. मुनि वस्त्रों को शिला पर पटक-पटक कर या लकड़ी आदि से पीट-पीटकर न धोए। धोने के पश्चात् वस्त्रों को अग्नि के ताप में न सुखाए। परिभोग्य वस्त्रों को छाया में तथा अपरिभोग्य वस्त्रों को
१. गाथा २२/२ में जो सप्तदिवसीय कल्पशोधन विधि है, वही इस गाथा में तीन दिवसीय वर्णित है। प्रथम रात्रि में शोधनीय वस्त्र को बाहर से ओढ़कर, दूसरी रात्रि में संस्तारक के निकट स्थापित करे तथा तीसरी रात्रि में संस्तारक पर वस्त्र को
अधोमुख करके शरीर पर्यन्त फैलाकर ओढ़े (मवृ प. १५)। २. वर्षाकाल में घर की छत पर लगे खपरैल के अंत भाग से टपकने वाला पानी नीव्रोदक कहलाता है। रजकण, धूम का . कालापन तथा दिनकर के आतप से तप्त नीव्र के सम्पर्क से वह जल अचित्त हो जाता है (मवृ प. १५)। ३. टीकाकार के अनुसार राख डालने से मलिन जल भी स्वच्छ हो जाता है (मवृ प. १५)। ४. प्रासुक जल तीन प्रहर के बाद सचित्त हो जाता है, ऐसी टीकाकार की मान्यता है अत: राख डालकर उपयोग में लेना
चाहिए (मवृ प. १५)। ५. यथाकृत-परिकर्म से रहित तथारूप लब्ध वस्त्र (मवृ प. १५)। ६. एक बार फाड़कर सिलाई किया हुआ वस्त्र (मवृ प. १५)। ७. टीकाकार के अनुसार विशुद्ध एवं पवित्र अध्यवसाय के कारण वस्त्रों के धोने का यह क्रम बताया गया है। अल्प परिकर्म
वाले वस्त्र संयम, स्वाध्याय आदि में कम बाधा डालने वाले होते हैं। यथाकृत वस्त्रों में परिकर्म का अभाव होने से संयम स्वाध्याय आदि में बिल्कुल व्याघात नहीं होता। बहु परिकर्म वाले वस्त्र स्वाध्याय आदि के व्याघातक होते हैं अत: उनको
सबसे अंत में धोना चाहिए (मवृ प. १६)। ८. सुखाते समय जल-बिन्दु गिरने से अग्निकाय की विराधना न हो इसलिए अग्नि-ताप में सुखाने का निषेध है (मवृ ष. १६)। ९. परिभोग्य वस्त्रों को धोने पर भी उनमें जं आदि जीवित रह सकती हैं अत: उन्हें धूप में सुखाने का निषेध है (म प. १६)।
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