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पिंडनियुक्ति
और दाहोपशमन के लिए होता है अथवा) वैद्य के कथनानुसार लेप आदि में होता है। चतुरिन्द्रिय का परिभोगमक्खियों का मल (अर्थात् शहद) वमन-निरोध के लिए होता है अथवा अश्वमक्षिका का आंखों से अक्षर (काला पानी) का समुद्धार करने के लिए किया जाता है। पंचेन्द्रिय पिंड में नैरयिक अनुपयोगी हैं। ३६. तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय पिंड के ये उपयोग हैं-चर्म', अस्थि, दांत, नख, रोम, सींग, भेड़ आदि की मींगनी, गोबर, गोमूत्र तथा दूध-दधि आदि। ३७. (मनुष्य के भी तीन भेद हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त।) सचित्त मनुष्य का प्रयोजन-प्रव्रजित करना, पूछने पर मार्ग बताना, मुनियों को भिक्षा देना, वसति आदि देना। अचित्त मनुष्य का प्रयोजन-मनुष्य के सिर की हड्डी लिंग संबंधी व्याधि विशेष को दूर करने के लिए घिस कर दी जाती है। मिश्र मनुष्य से प्रयोजन-हड्डियों के आभूषण पहने, शरीर पर राख लगाए कापालिक का मार्ग पूछने में उपयोग होता है। ३८. तपस्वी क्षपक आदि मुनि किसी देवता से अपनी काल-मृत्यु के विषय में पूछे तथा मार्ग विषयक शुभ-अशुभ की बात पूछे, यह देवता विषयक उपयोग है। ३९. इन नौ पिण्डों (देखें गाथा ८) का मिश्र पिंड भी होता है। द्विक आदि के संयोग से चरम संयोग तक मिश्र पिंड होता है। ४०. मिश्र पिंड के अन्य उदाहरण ये हैं-सौवीर'-कांजी, गोरस-छाछ, आसव-मद्य, वेसन-जीरा, लवण आदि, भेषज-यवागू, स्नेह-घृत आदि, शाक, फल, पुद्गल-पकाया हुआ मांस, लवण, गुडौदन-इस प्रकार संयोग से अनेक मिश्र पिंड होते हैं। १. टीकाकार ने चर्म आदि के उपयोग का स्पष्टतया उल्लेख किया है। चर्म का उपयोग क्षुरा आदि रखने के लिए कोशक
बनाने में होता है। गीध की अस्थि तथा नख शरीर में होने वाले फोड़े की चिकित्सा हेतु बाह्य रूप से बांधे जाते हैं। शूकर की दाढ़ा दृष्टिपुष्प (नेत्र रोग विशेष) को दूर करने के लिए प्रयुक्त होती है। जीव विशेष के नखों का उपयोग, धूप और गंध के लिए तथा किसी रोग विशेष की चिकित्सा के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। रोम का प्रयोग कम्बल बनाने में होता है।
मार्ग भ्रष्ट साधुको आपस में मिलाने के लिए सींग बजाने का प्रयोग तथा खुजली आदि में गोमूत्र का प्रयोग होता है (मवृ प. २०, २१)। २. टीकाकार सिर की हड्डी का एक अन्य प्रयोजन बताते हुए कहते हैं कि कभी किसी साधु पर राजा रुष्ट होकर उसे मारने
का प्रयत्न करे तो साधु सिर की हड्डी लेकर कापालिक वेश में पलायन करके देशान्तर चला जाए (मवृ प. २१)। ३. 'आदि' शब्द से क्षपक के अतिरिक्त आचार्य आदि का ग्रहण भी करना चाहिए। टीकाकार का मंतव्य है कि क्षपक के
तपोविशेष से आकृष्ट होकर देवता उसकी सन्निधि में उपस्थित रहते हैं अत: यहां साक्षात् क्षपक शब्द का प्रयोग किया है। ४. द्विक संयोग के ३६, त्रिक संयोग के ८४, चतुष्क संयोग के १२६, पंच संयोग के १२६, षट्संयोग के ८४, सप्तसंयोग के
३६, अष्टसंयोग के ९ तथा नव संयोग का १-कुल ५०२ विकल्प होते हैं (मवृ प. २१)। ५. टीकाकार ने सौवीर आदि द्रव्य कितने कायों का मिश्रण है, इसका विस्तार से उल्लेख किया है। सौवीर-कांजी, यह
अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय का पिण्ड है क्योंकि पानी से चावल को धोकर पकाया जाता है, अग्नि द्वारा अवश्रावण बनता है तथा वनस्पतिकाय के रूप में तण्डुल का उपयोग होता है। कुछ व्यक्ति उसमें लवण भी मिलाते हैं अत: पृथ्वीकाय का मिश्रण भी हो गया। गोरस-तक्र आदि में अप्काय और त्रसकाय का मिश्रण है। आसव-मद्य अप्काय, तेजस्काय तथा वनस्पतिकाय आदि का पिण्ड है। वेसन-वनस्पतिकाय तथा पृथ्वीकाय आदि का पिण्ड है। भेषज यवागू आदि में अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय का पिण्ड है। स्नेह-घृत आदि तेजस्काय और त्रसकाय का पिण्ड है। शाक-बथुआ भर्जिका आदि वनस्पति पृथ्वीकाय तथा त्रसकाय आदि के पिण्ड रूप हैं (मवृ प.२२)।
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