________________
अनुवाद
११७
वाले रूक्ष अथवा स्निग्ध काल के आधार पर पौरुषी और दिन के अनुसार सचित्त होती है। २८. (नदी आदि के उत्तरण में) मुनि का दृतिस्थित अथवा वस्तिस्थित वायु से प्रयोजन होता है अथवा रोग विशेष में अपान प्रदेश में वायु का प्रक्षेप किया जाता है। (यह स्थलस्थ वायु का प्रयोजन है) मुनि को सचित्त और मिश्र वायु का परिहार करना चाहिए। २९. वनस्पतिकाय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त। सचित्त वनस्पति के दो प्रकार हैंनिश्चयसचित्त और व्यवहारसचित्त। ३०. निश्चयनय के अनुसार अनन्तकाय वनस्पति सचित्त होती है। व्यवहारनय के अनुसार शेष सारी वनस्पति सचित्त होती है । म्लान (अर्द्धशुष्क) वनस्पति तथा घट्टी में पीसा गया चावल आदि का चूर्ण मिश्र वनस्पतिकाय है। ३१. पुष्प, पत्र, कोमलफल, हरित अर्थात् ब्रीहि तथा वृन्त यदि म्लान (शुष्क प्रायः) हो गए हों तो वह जीवविप्रमुक्त वनस्पति है अर्थात् अचित्त है। ३२. अचित्त वनस्पतिकाय के अनेक प्रयोजन हैं; जैसे-संस्तारक, पात्र, दंडक, क्षौम (दो प्रकार के कल्प-प्रावरण), पीढ़, फलक, औषधि-हरीतकी आदि, भेषज–अनेक औषधियों का चूर्ण आदि। ३३-३५. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय प्राणी तीन-तीन के रूप में अपनी-अपनी जाति में एकत्र संश्लिष्ट होते हैं, वह पिंड कहलाता है। उसका यह प्रयोजन है-द्वीन्द्रिय का परिभोग' शंख, शुक्ति और कपर्दक आदि के रूप में होता है। त्रीन्द्रिय के रूप में दीमककृत वल्मीक की मिट्टी का उपयोग (सर्पदंश
१. एकान्त स्निग्ध काल में स्थलस्थ दृति या वस्ति में स्थित वायु एक प्रहर तक अचित्त रहती है। द्वितीय प्रहर के प्रारंभ में मिश्र तथा तीसरी प्रहर के प्रारंभ में ही सचित्त हो जाती है। मध्यम स्निग्ध काल में दो प्रहर तक अचित्त, तीसरी प्रहर में मिश्र तथा चौथी प्रहर में सचित्त हो जाती है। जघन्य स्निग्ध काल में दृतिस्थ वायु तीन प्रहर तक अचित्त, चौथी प्रहर में मिश्र तथा पांचवीं प्रहर में सचित्त हो जाती है। रूक्ष काल में भी ऐसा ही जानना चाहिए। वहां प्रहर के स्थान पर दिनों की वृद्धि करनी चाहिए। जघन्य रूक्ष काल में वस्तिगत वायु एक दिन तक अचित्त, दूसरे दिन मिश्र तथा तीसरे दिन सचित्त होती है। मध्यम रूक्षकाल में दो दिन तक अचित्त, तीसरे दिन मिश्र तथा चौथे दिन सचित्त होती है। उत्कृष्ट रूक्ष काल में तीन दिन तक अचित्त, चौथे दिन मिश्र तथा पांचवें दिन सचित्त होती है (पिभा १२-१४, मवृ प. १८)। २. चूर्ण में कुछ अंश बिना दले रह सकते हैं, इस अपेक्षा से चूर्ण को मिश्र माना है अथवा तत्काल पीसे हुए आटे के कुछ कण
अपरिणत रह सकते हैं अतः वह मिश्र होता है। ३. द्वीन्द्रिय आदि का साधु के लिए दो प्रकार का प्रयोजन होता है-१. शब्द से २. शरीर से। शकुनशास्त्री शंख की ध्वनि
को बहुत शुभ मानते हैं, यह द्वीन्द्रिय का शब्द आदि से प्रयोजन है। शरीर द्वारा तीन प्रकार से प्रयोजन सिद्ध होता है१. सम्पूर्ण शरीर से २. उसके एक देश से ३. शरीर के सम्पर्क से उत्पन्न अन्य वस्तु से। स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले जल के सम्पर्क से मोती पैदा होते हैं । अक्ष और कपर्दक समवसरण की स्थापना में प्रयुक्त होते हैं । शंख और शुक्ति का उपयोग
चक्षुपुष्प (नेत्र रोग विशेष) को दूर करने में होता है (मवृ प. २०)। ४. तीन आदि का उल्लेख उपलक्षण से है। दो के मिलने से भी पिण्ड होता है (मवृ प. १९)। ५. टीकाकार के अनुसार यहां 'परिभोग' शब्द का प्रयोग कर्म के साधन रूप में विवक्षित है (मवृ प. २०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org