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पिंडनियुक्ति
४४/१-३. प्रशस्त और अप्रशस्त भावपिंड एक से दस प्रकार का है। तीर्थंकरों ने प्रशस्त भावपिंड के दस प्रकार ये बताए हैं
१. संयम। २. विद्या और चरण (ज्ञान और क्रिया)। ३. ज्ञानादि त्रिक-ज्ञान, दर्शन, चारित्र। ४. ज्ञान, दर्शन, तप और संयम। ५. (प्राणातिपात विरमण आदि) पांच महाव्रत। ६. रात्रि भोजन सहित व्रतषट्क। ७. सात पिंडैषणा', सात पानैषणा, सात अवग्रहप्रतिमा।
१. संयम के पर्यव अविभक्त रूप से पिंडीभूत होकर अवस्थित रहते हैं। उनका आपस में तादात्म्य संबंध रहता है अत: संयम
के पर्यायों की अपेक्षा एकविध होते हुए भी वह पिंड है, इसमें विरोध नहीं है (मवृ प. २६)। २. पिण्डैषणा के सात प्रकार हैं
• असंसृष्टा-असंसृष्ट हाथ एवं पात्र से आहार लेना। • संसृष्टा-संसृष्ट हाथ और संसृष्ट पात्र से आहार लेना। • उपनिक्षिप्तपूर्वा (उद्धृता)-किसी पात्र में पहले से निकाला हुआ आहार लेना। • अल्पलेपा-बेर का चूर्ण, चावल का आटा आदि रूखा आहार लेना। • उपहृत भोजनजात (अवगृहीता)-खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना। • प्रगृहीत भोजनजात (प्रगृहीता)-हाथ में रखा हुआ भोजन लेना।
• उज्झितधर्मा-जिसे अन्य द्विपद, चतुष्पद या श्रमण-माहन न लेना चाहें, उसे लेना (आचूला १/१४०-४७)। ३. पिण्डैषणा की भांति ही पानैषणा के सात प्रकार हैं। पिण्ड में अशन आदि तथा पान में पानी आदि का ग्रहण होता है।
प्रवचनसारोद्धार (गा. ७४४, टी प. २१६) में पानैषणा के अन्तर्गत अल्पलेपा का अर्थ करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि काजी, अवश्रावण, गरम जल, चावलों का धोवन आदि अलेपकृत पानक हैं तथा इक्षुरस, द्राक्षा पानक तथा
अम्लिका पानक आदि लेपकृत हैं। ४. वसति विषयक नियम विशेष या प्रतिमा विशेष को अवग्रह प्रतिमा कहते हैं, उसके सात प्रकार हैं
• मैं अमुक स्थान में रहूंगा, दूसरे में नहीं। • मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा तथा दूसरे द्वारा याचित स्थान में रहूंगा, यह प्रतिज्ञा गच्छगत साधु की होती है। • मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा लेकिन दूसरों द्वारा याचित स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधु के
होती है। • मैं दूसरों के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा किन्तु दूसरों द्वारा अवगृहीत या याचित स्थान में रहूंगा। यह प्रतिज्ञा
जिनकल्प दशा का अभ्यास करने वाले गच्छगत साधुओं के होती है। • मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के लिए नहीं। यह प्रतिज्ञा जिनकल्पिक साधुओं की होती है। • जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां तृण, पलाल आदि से निर्मित संस्तारक आदि प्राप्त करूंगा अन्यथा
उत्कटुक या निषद्या आसन में बैठकर रात बिताऊंगा। यह प्रतिज्ञा जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधुओं के होती है। • जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसके यहां सहज रूप से बिछा हुआ सिलापट्ट या काष्ठपट्ट उपलब्ध होगा तो प्राप्त
करूंगा अन्यथा उत्कटुक या निषद्या आसन में बैठा-बैठा रात बिताऊंगा। यह प्रतिमा भी जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी साधु की अपेक्षा से है (आचूला ७/४८-५५)।
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