________________
११४
संपातिमजीव एवं वायुकाय की विराधना होती है ।
·
पानी फैलाने से पृथ्वी पर आश्रित जीवों का उपघात होता है।
·
२१/१. वर्षाकाल के अप्राप्त होने पर भी मुनि अपने समस्त उपकरणों का यतनापूर्वक प्रक्षालन करे। पानी की प्राप्ति न होने पर जघन्यतः पात्रनिर्योग' का प्रक्षालन तो अवश्य ही कर लेना चाहिए ।
पिंडनिर्युक्ति
२१/ २. आचार्य तथा ग्लान के मलिन वस्त्र बार-बार धोए जाते हैं क्योंकि आचार्य के वस्त्रों को न धोने पर लोगों में अवर्णवाद होता है तथा ग्लान के वस्त्र न धोने पर अजीर्ण आदि रोग होता है ।
२२. पात्र के प्रत्यवतार अर्थात् पात्रनिर्योग के छह प्रकार, रजोहरण की दो निषद्याएं२ - बाह्य और आभ्यन्तर, तीन पट्ट - संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट तथा चोलपट्ट, पोत्ति - मुखवस्त्रिका, रजोहरण - इन उपकरणों का प्रतिदिन उपयोग होता है अतः इन्हें अपरिभोग्यरूप में स्थापित न करे । यतनापूर्वक संक्रमण करे अर्थात् षट्पदिका को अन्य वस्त्रों में संक्रमित करके फिर उस वस्त्र का प्रक्षालन करे ।
२२/१. जो प्रक्षालनकाल प्राप्त होने पर भी षट्पदिका आदि के कारण उपधि को अपरिभोग्य रूप में स्थापित करता है, वह वीतराग की आज्ञा के अनुसार उपधि को इस प्रकार विश्रमणा विधि से स्थापित करे ।
१. पात्रनिर्योग का अर्थ है- पात्र के उपकारी उपकरण, जैसे- पात्रबंध, पात्रस्थापन, पात्रकेशरिका, पटल, रजस्त्राण, गोच्छक - ये सब पात्रनिर्योग हैं
पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया ।
पडलाई रयत्ताणं, च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥ ( मवृ प. १३)
२. रजोहरण की दो निषद्याएं होती हैं - १. आभ्यन्तर निषद्या, जो वस्त्रमयी होती है । २. बाह्य निषद्या, जो कम्बलमयी होती है (अव प. ६) ।
३. मुख को ढकने के लिए चार अंगुल अधिक वितस्ति प्रमाण वस्त्र मुखपोतिका या मुखवस्त्रिका कहलाता है ( मवृ प. १३) । ४. इस गाथा में वस्त्र-प्रक्षालन के संदर्भ में विश्रमणा विधि बताई गई है। मुनि के तीन प्रावरण होते हैं -- दो सूती तथा एक
ऊनी । क्षौम का एक प्रावरण सदा शरीर से लगा हुआ रहता है। उसके ऊपर दूसरा प्रावरण तथा उसके ऊपर कंबल का प्रावरण रहता है। प्रथम विश्रमणा विधि में तीन दिन तक शरीर से संलग्न सूती कपड़े को शेष दो कपड़ों के ऊपर इस प्रकार ओढ़ा जाए कि उस कपड़े में लगी षट्पदिकाएं क्षुधा से पीड़ित होकर या शीत से बाधित होकर शेष दो वस्त्रों में अथवा शरीर में लग जाएं, यह प्रथम विश्रमणा-विधि है। तीन दिनों तक दिन में ओढ़ने के बाद फिर तीन रात्रि तक संस्तारक के तट पर ही कपड़े को स्थापित किया जाए, जिससे प्रथम विश्रमणा-विधि में जो षट्पदिकाएं कपड़े से बाहर नहीं निकलतीं वे आहार आदि के लिए बाहर निकलकर संस्तारक पर लग जाती हैं, यह दूसरी विश्रमणा विधि है। फिर एक रात्रि में कपड़े को अधोमुख फैलाकर शरीर पर्यन्त फैलाकर ओढ़े और दृष्टि-प्रतिलेखना करे। दृष्टि-प्रतिलेखना करने पर यदि षट्पदिकाएं दिखाई न दें तो सूक्ष्म जूंओं की रक्षा हेतु पुनः उस कपड़े को शरीर पर ओढ़े, जिससे आहार आदि के लिए वे शरीर पर लग जाएं। इतना करने पर फिर दृष्टि-प्रतिलेखन करे। इस प्रकार सात दिनों से कल्पशोधन होता है फिर उस वस्त्र का प्रक्षालन किया जाता है। वर्तमान में यह विधि कृतकृत्य हो गई है क्योंकि स्वच्छता के कारण षट्पदिका आदि का अभाव होता है (मवृ प. १४) देखें २२ / २, ३ का अनुवाद ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org