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पिंडनियुक्ति
अचित्त पृथ्वीकाय के कुछ अन्य प्रयोजन इस प्रकार हैं१४. स्थान-कायोत्सर्ग, निषीदन, शयन, उच्चार आदि का उत्सर्ग करने के लिए अचित्त पृथ्वी का उपयोग होता है तथा घुट्टक-लेपित पात्र को चिकना करने में प्रयुक्त पाषाण विशेष, डगलक-उच्चार प्रस्रवण के पश्चात् अपानमार्ग को शुद्ध करने वाला पाषाण-खंड तथा पात्र-लेप आदि इस प्रकार अचित्त पृथ्वीकाय का बहुविध प्रयोग होता है। १५. अप्काय के तीन भेद हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त। सचित्त अप्काय के दो प्रकार हैं-निश्चय सचित्त अप्काय तथा व्यवहार सचित्त अप्काय। १६. घनोदधि, घनवलय', करक-ओला तथा समुद्र और द्रह के बहुमध्यभाग में निश्चयसचित्त (एकान्त सचित्त) अप्काय होता है। कूप, वापी, तड़ाग आदि का अप्काय व्यवहारतः सचित्त होता है। १७. अनुवृत्त उष्णजल तथा बरसती हुई वर्षा का पानी मिश्र अप्काय होता है। तीन आदेशों-मतों या परम्पराओं को छोड़कर चावल का पानी, जो अत्यन्त स्वच्छ नहीं है, वह भी मिश्र अप्काय है। १७/१. तण्डुल-उदक के तीन आदेश-मत इस प्रकार हैं
• तण्डुल को धोकर एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालने पर जो पानी के बिन्दु बर्तन के पार्श्व में
लग जाते हैं, वे जब तक नहीं सूखते, तब तक वह तण्डुलोदक मिश्र माना जाता है। • तण्डुल को धोकर दूसरे बर्तन में डालने पर जो बुबुदे उठते हैं, वे जब तक शांत नहीं होते,
तब तक तण्डुलोदक मिश्र होता है। • तण्डुलोदक में जब तक चावल नहीं पकते, तब तक वह तण्डुलोदक मिश्र होता है, (ये तीन
मत हैं)। १. नरक पृथ्वी का आधारभूत ठोस अप्काय वाला समुद्र। (मत प. ९) घनोदधि, घनवात आदि शब्दों की वैज्ञानिक दृष्टि से
तुलना हेतु देखें भगवती भाष्य भाग १ पृ. १३६ । २. नरक पृथ्वियों के पार्श्ववर्ती अप्कायमय परकोटा (मव प. ९)। ३. तीन उबाल वाला उष्णजल प्रासुक माना जाता है। पहले उबाल में वह कुछ परिणत होता है, दूसरे में अधिकांश परिणत ___ हो जाता है तथा तीसरे में वह पूर्णरूप से अचित्त रूप में परिणत हो जाता है (मवृ प. १०)। ४. ग्राम, नगर आदि में बरसने वाला पानी मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के आवागमन से उनके सम्पर्क के कारण पूर्ण अचित्त नहीं होता अत: मिश्र होता है। ग्राम, नगर आदि के बाहर यदि कम वर्षा होती है तो पृथ्वीकाय से परिणत होने पर वह जल मिश्र रहता है। जब बहुत तेज वर्षा होती है तब प्रारंभ की वर्षा का जल पृथ्वीकाय के सम्पर्क से परिणत होकर मिश्र रहता है
लेकिन बाद में बरसने वाला जल सचित्त होता है (मवृ प. १०)। ५. तीन आदेशों की व्याख्या हेतु देखें गा. १७/१ का अनवाद। ६. आप्टे की डिक्शनरी (प. ४१६) में चावल की चार अवस्थाएं बताई गई हैं
शस्यं क्षेत्रगतं प्रोक्तं, सतुषं धान्यमुच्यते।
निस्तुषः तण्डुलः प्रोक्तः, स्विन्नमन्नमुदाहतम्॥ क्षेत्रगत चावल शस्य, तुष सहित चावल धान्य, तुष रहित चावल तण्डुल तथा पकाया हुआ चावल अन्न कहलाता है।
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