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अनुवाद
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९. पृथ्वीकाय के तीन प्रकार हैं-सचित्त, मिश्र और अचित्त । सचित्त पृथ्वीकाय के दो भेद हैं-निश्चय सचित्त और व्यवहार सचित्त। १०. महापर्वतों का बहुमध्यभाग निश्चयसचित्त पृथ्वी है तथा अचित्त और मिश्र पृथ्वी को छोड़कर (अरण्य आदि की) सारी पृथ्वी व्यवहार सचित्त पृथ्वी है। ११. क्षीरद्रुम-वट, अश्वत्थ आदि वृक्षों के नीचे की पृथ्वी, पंथ-ग्राम और नगर के बाहर के मार्ग की पृथ्वी, कृष्ट-हल द्वारा विदारित भूमि, आर्द्र-जलमिश्रित पृथ्वी', ईंधन-गोबर आदि से मिश्रित पृथ्वीये सब मिश्र पृथ्वीकाय हैं। अधिक ईंधन के मध्यगत पृथ्वी एक प्रहर तक, मध्यम ईंधन से संपृक्त पृथ्वी दो प्रहर तक तथा अल्प ईंधन से संपृक्त पृथ्वी तीन प्रहर तक मिश्र पृथ्वीकाय के रूप में रहती है। (बाद में वह अचित्त हो जाती है)। १२. इन चीजों से पृथ्वीकाय अचित्त होता है-शीत, उष्ण', क्षार, क्षत्र, अग्नि, लवण, ऊष', अम्ल (खटाई), स्नेह, तैल आदि । व्युत्क्रान्तयोनि अर्थात् प्रासुक पृथ्वीकाय से साधुओं का प्रयोजन होता है। १३. अपराद्धिक अर्थात् मकड़ी आदि के दंश से होने वाला फफोला तथा विष-सर्पदंश आदि, इनके उपशमन हेतु प्रलेप-बंध करने में अचित्त पृथ्वीकाय का उपयोग होता है। अचित्त लवण भोजन आदि में गृहीत होता है। अचित्त सुरभिउपल' अर्थात् गंधरोहक नामक पाषाण का सप्रयोजन ग्रहण होता है।
१. वट, अश्वत्थ आदि के वृक्ष क्षीरद्रुम कहलाते हैं। इनके माधुर्य के कारण शस्त्र का अभाव होने से कुछ पृथ्वीकाय के जीव
सचित्त रहते हैं तथा शीत आदि शस्त्र के सम्पर्क से कुछ अचित्त हो जाते हैं अतः इन वृक्षों के नीचे मिश्र पृथ्वीकाय रहती है (मवृ प. ८)। २. मेघ का जल जब सचित्त पृथ्वीकाय पर गिरता है तो कुछ समय तक जलार्द्र पृथ्वी मिश्र रहती है। अन्तर्मुहूर्त बाद अचित्त
हो जाती है क्योंकि पृथ्वी और पानी दोनों आपस में शस्त्र हैं। जब तक सर्वथा परिणत नहीं होती, तब तक पृथ्वी मिश्र रहती
है (मवृ प.८)। ३. यहां उष्ण' शब्द से सूर्य का परिताप गृहीत है। अग्नि का परिताप'अग्नि' शब्द से गृहीत है (मवृ प.८)। ४. करीष विशेष (अव प. ४)। ५. मवृ प.८; ऊषरादिक्षेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः । ऊष-ऊषर क्षेत्र में उत्पन्न लवण मिश्रित रजकण विशेष। ६. पृथ्वीकाय की अचित्तता चार प्रकार से होती है-१. द्रव्यतः २. क्षेत्रतः ३. कालत: ४. और भावतः ।स्वकाय या परकाय शस्त्र
से जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह द्रव्यतः है। क्षार क्षेत्र में उत्पन्न और मधुरक्षेत्र में उत्पन्न पृथ्वी का आपस में सम्पर्क होने से जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह क्षेत्रतः है। इसमें क्षेत्र विशेष की प्रधानता विवक्षित है। सौ योजन के आगे पृथ्वीकाय को ले जाने पर भिन्न आहार तथा शीत आदि के सम्पर्क से पृथ्वी अचित्त हो जाती है, यह भी क्षेत्रत: अचित्त होना है। स्वभावतः आयु क्षय होने पर जो पृथ्वी अचित्त होती है, वह कालतः है। अतिशय ज्ञानी ही इस बात को जान सकते हैं, छद्मस्थ नहीं। यही कारण है कि आयु क्षय होने पर अचित्त जल वाले तड़ाग का पानी पीने की भगवान् महावीर ने अनुज्ञा नहीं दी कि कहीं आगे आने वाले साधु सचित्त तड़ाग के जल का सेवन न करें। भावतः अचित्त होने का अर्थ है-वर्ण, रस
आदि का बदलना (मवृ प. ८,९)। ७. म प. ९; सुरभ्युपलेन गन्धपाषाणेन गन्धरोहकाख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसतवातघातादिः क्रियते। सुरभि उपल
अर्थात् गंधरोहक नामक पाषाण के द्वारा खुजली से उत्पन्न वात आदि का निराकरण किया जाता था।
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