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पिंडनियुक्ति भाष्य
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की यह मान्यता है कि ओदन ही आधाकर्म होता है, शेष सौवीर, अवश्रावण और तण्डुलोदक आदि आधाकर्मिक नहीं होते अतः वे उनका ग्रहण करते हैं।' ३१. ओमे संगमथेरा, गच्छ विसज्जंति जंघबलहीणा।
नवभागखेत्तवसधी, दत्तस्स य आगमो ताहे ॥४०॥ ३२. 'उवसयबाहिं ठाणं'३, अन्नाउंछेण संकिलेसो य।
पूयणचेडे मा रुद, पडिलाभण विगडणा सम्मं॥४१॥ दुर्भिक्ष में संगम स्थविर ने जंघाबल की क्षीणता के कारण गच्छ का विसर्जन कर दिया। कोल्लिकेर नगर के नवभाग करके वही रहना प्रारंभ कर दिया। कुछ दिनों बाद शिष्य दत्त का आगमन हुआ। वह उपाश्रय के बाहर रुका। अज्ञात उञ्छ भिक्षा से वह मानसिक रूप से संक्लिष्ट हो गया। सेठ का बालक पूतना व्यन्तरी से प्रभावित था। आचार्य ने 'मत रोओ' ऐसा कहकर चप्पुटिका बजाई, जिससे भिक्षा की प्राप्ति हुई। शिष्य ने सम्यक् आलोचना की। ३३. दाराभोगण एगागि, आगमों५ परियणस्स पच्चोणी ।
'पुच्छा समणे कहणं", साइयंकार सुविणादी ॥ ४२ ॥ ३४. कोवो वलवागब्भं, च पुच्छितो पंचपुंडमाइंसु ।
फालणदिढे जइ नेवं, तो१ तुह२ अवितहं कइ वा॥ ४३॥ दूरगत ग्रामनायक एकाकी आया, परिजनों को सामने आते हुए देखकर उसने आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा-'साधु ने कहा है।' विश्वास के लिए स्वप्न आदि की बात कही। कोप से गृहनायक ने पूछा-'घोड़ी के गर्भ में क्या है ?' नैमित्तिक साधु ने कहा-'पंचपुंड्र किशोर (घोड़ी का बच्चा) है।' घोड़ी का पेट फाड़ने पर वही निकला। यदि ऐसा नहीं होता तो तुम्हारा भी वध हो जाता। ऐसे कितने नैमित्तिक हैं, जो अवितथ निमित्त का कथन करते हैं।१३
१. टीकाकार मलयगिरि ने स्पष्टता से उल्लेख किया है कि ७. पुच्छ ति य समणं (क), नियुक्तिकार भद्रबाहु ने सौवीर, अवश्रावण और पुच्छा य खमणकहणं (निभा २६९५, ४४०७)। तण्डुलोदक को आधाकर्म माना है। गाथा १९१ में भी ८. सुमिणाई (क, मु), कथा के विस्तार हेतु देखें नियुक्तिकार ने इसी बात की पुष्टि की है।
परि. ३, कथा सं. २८। २. निभा ४३९३, पिनि गा. १९९ में आई कथा का विस्तार ९. वडवा (बी, मु)।
दो भाष्यगाथाओं (पिभा ३१, ३२) में हुआ है। १०. भणति पंचपुंडासो (निभा २६९६), ३. उवसग्गबहिट्ठाणं (निभा ४३९४)।
पंच पुंडगा संतु (निभा ४४०८)। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २६ । ११. तु (क)। ५. आगओ (ला, मु)।
१२. तुहं (मु, जीभा १३४७)। ६. पच्चोणी-सन्मुखागमनं (मवृ)।
१३. पिनि गा. २०५ में आई कथा का विस्तार दो
भाष्यगाथाओं (पिभा ३३, ३४) में हुआ है।
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