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चुल्ली पर स्थापित नहीं, पिठर पर स्थापित । (चूल्हे से दूर पिठर में स्थापित ) • न चुल्ली पर स्थापित, न ही पिठर पर । (चूल्हे से दूर छब्बक आदि में स्थापित ) कत्तामि ताव पेलूं, तो ते देहामि पुत्त ! मा रोव ।
२६.
'जइ तं सुणेति साहू, न गच्छते तत्थ आरंभो ॥ ३५ ॥
२७.
अन्नट्ठ उट्ठिया वा, तुब्भ वि देमि त्ति किं पि परिहरति । किह दाणि न उट्ठहिसी ?, साधुपभावेण लब्भामो ॥ ३६ ॥ (बालक के द्वारा भोजन मांगने पर रूई की पूर्णिका कातती हुई स्त्री कहती है - ) 'मैं अभी रूई कात रही हूं। इसके बाद मैं तुम्हें भोजन दूंगी अतः तुम मत रोओ' इस वाक्य को सुनकर साधु भिक्षा के लिए अंदर न जाए क्योंकि वहां आरंभ - हिंसा की संभावना है। यदि मां यह कहती है कि अन्य प्रयोजन से उलूंगी तो तुम्हें भी भोजन दूंगी तो भी साधु उसका परिहार करता है अथवा साधु के आने पर यदि बालक अपनी मां को कहता है कि तुम क्यों नहीं उठती हो ? साधु के प्रभाव से हमें भी भोजन मिलेगा। बालक के इन वचनों को सुनकर भी साधु दीयमान आहार का परिहार करता है ।
२८.
सुक्केण वि 'जं छिक्कं ५, तु असुइणा धोव्व
जहा लोगे । इह सुक्केण वि छिक्कं, धोव्वति कम्मेण भाणं तु ? ॥ ३७ ॥
जिस प्रकार शुष्क अशुचि से स्पृष्ट होने पर भी लोक में उस भाजन या वस्तु को धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने पर भी पात्र का कल्पत्रय से शोधन करना
अनिवार्य है।
२९.
लेवालेव त्ति जं वुत्तं, जं पि
दव्वमलेवडं ' ।
तंपि घेत्तुं ण कप्पंति, तक्कादि किमु लेवडं २९ ॥ ३८ ॥ अलेपकृद् आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि के ग्रहण करने पर भी कल्पत्रय के बिना उस पात्र में भोजन कल्पनीय नहीं होता फिर तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या ? आहाय जंकीरति तं तु कम्मं, वज्जेहिही " ओदणमेगमेव । सोवीर आयामग चाउलोदं", कम्मं ति तो तग्गहणं करेंति१२ ॥ ३९ ॥ साधु के निमित्त से जो आधाकर्मिक ओदन आदि बनाया जाता है, उसके संदर्भ में
३०.
कुछ
१. तं जइ (मु) ।
२. तु. जीभा १२३० ।
३. पभावा वि (स, ला) ।
४. पिभा २६, २७ में अपसर्पणरूप सूक्ष्मप्राभृतिका का वर्णन
है। ये गाथाएं वास्तव में निर्युक्ति की होनी चाहिए लेकिन टीकाकार ने 'भाष्यकृद् गाथाद्वयमाह' का उल्लेख किया है अत: इसे भाष्यगाथा के रूप में रखा है।
५. जच्छिक्कं ( अ, स) ।
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पिंडनियुक्ति
६. धोवए (मु) ।
७. जीभा १२९८ ।
८.
दव्व अलेवडं (स) ।
९.
जीभा १२९९ ।
१०. 'हिहि (स) ।
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आचार्यों
११. चाउलो वा (मु),
लोदगं (ला) ।
१२. करंति ( अ, क ), पिनि गा. १९१ की व्याख्या में तीन भाष्यगाथाएं (पिभा २८-३०) हैं ।
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