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पिंडनियुक्ति भाष्य
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२१. किण्हादिया उ' लेसा, उक्कोसविसुद्धिठितिविसेसाओ ।
एतेसि विसुद्धाणं, अप्पं तग्गाहगो कुणति॥ ३०॥ कृष्ण आदि लेश्या तथा उत्कृष्ट विशुद्धि और स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को आधाकर्म भोजन ग्रहण करने वाला अधः-अधः (अल्प विशुद्धि और अल्पस्थिति वाला) करता है। २२. जाणंतमजाणतो, 'तहेव उद्दिसिय'३ ओहतो वावि।
जाणगमजाणगं वा, वहेति अनिदा निदा एसा ॥३१॥ जानते हुए उद्देश्यपूर्वक षट्काय का वध करना निदा तथा अजानकारी में सामान्य रूप से वध करना अनिदा है। २३. तत्थ विभागुद्देसियमेवं संभवति पुव्वमुद्दिटुं।
सीसगणहितट्ठाए, तं चेव विभागतो भणति ॥ ३२॥ प्रचुर खाद्य-सामग्री बचने पर विभाग औद्देशिक में यथावत् देना उद्दिष्ट है। शिष्य गण के हित के लिए विभाग औद्देशिक को विस्तार से कहा जा रहा है। २४. दुग्गासे तं समइच्छिया व अद्धाणसीसए जत्ता।
सड्डी बहुभिक्खयरे, मीसज्जातं करे कोई१० ॥३३॥ दुर्भिक्ष अतिक्रान्त होने पर कोई श्रद्धालु कान्तार के प्रवेश या निर्गम मार्ग पर अथवा तीर्थ-यात्रा में अनेक भिक्षाचरों को प्राप्त करके भोजन पकाता है, वह मिश्रजात है। २५. चुल्ली अवचुल्लो वा, ठाणसठाणं११ तु भायणं पिहडे१२ ।
सट्ठाणट्ठाणम्मि य, भायणठाणे१३ य चउभंगा ॥ ३४॥ स्थान दो प्रकार का होता है-१. स्थान स्वस्थान २. भाजन स्वस्थान । चुल्ली अवचुल्ली स्थान स्वस्थान है तथा पिठर-स्थाली आदि भाजन स्वस्थान हैं। स्थान स्वस्थान तथा भाजन स्वस्थान की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• चुल्ली पर स्थापित, पिठर पर भी। • चुल्ली पर स्थापित, पिठर पर नहीं। (छब्बक आदि में स्थित होने के कारण)
१. x (क, ब)।
८. दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासं (मवृ प. ८८)। २. विसुद्ध (ब, क)।
९. 'च्छिउं (मु)। ३. वहेति णिद्दिसिय (जीभा १११६)।
१०. पिनि १२० वीं गाथा की व्याख्या में एक भाष्यगाथा ४. जाणग अजाणए (क, बी)।
(पिभा २४) है। ५. पिनि ६५ वीं गाथा की व्याख्या में एक भाष्य गाथा (पिभा ११. सट्ठाणं (क, ब)। २२) है।
१२. पिढरे (मु)। ६. 'मेयं (स)।
१३. णट्ठाणे (क)। ७. संबंध गाथा के रूप में भाष्यकार ने यह गाथा १४. भगो (ला, क), पिनि १२६ की व्याख्या में यह (पिभा २३) लिखी है।
भाष्यगाथा (पिभा २५) है।
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