________________
१०२
पिंडनियुक्ति
अपद्रावण' का अर्थ अतिपात-विनाश रहित पीड़ा जानना चाहिए। १७. काय-वइ-मणो तिन्नि उ, अहवा देहाउ-इंदियप्पाणा।
सामित्तावायाणे', होति तिवाओ य करणेसुं॥२६॥ काय, मन और वचन अथवा देह, आयु और इंद्रिय-इन तीनों का स्वामित्व' अर्थात् षष्ठी तत्पुरुष, अपादान' अर्थात् पञ्चमी तत्पुरुष तथा करण-तृतीया तत्पुरुष से तिपात-अतिपात करना त्रिपातन है १८. हिययम्मि समाहेउं, एगमणेगं च गाहगं जो उ।
वहणं करेति दाता, कायाण तमाहकम्मं ति॥ २७॥ एक या अनेक साधु के लिए हृदय में सोचकर दाता जो षट्काय का वध करता है, वह आधाकर्म कहलाता है।
१९. तत्थाणंता' उ चरित्तपज्जवा होंति संजमाणं।
___ 'संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होति नातव्वं'१० ॥२८॥ चारित्र के पर्यव अनंत होते हैं, उतने ही संयमस्थानक होते हैं। उनमें संख्यातीत कंडक' होते हैं। २०. संखाईयाणि उ१२ कंडगाणि छट्ठाणगं विणिद्दिटुं।
__ छट्ठाणा उ असंखा, संजमसेढी मुणेयव्वा ॥२९॥
संख्यातीत कंडक षट्स्थानक (अनंत भाग, अनंत गुण आदि छह प्रकार की वृद्धि-हानि वाले)होते हैं। असंख्येय षट्स्थानक संयमश्रेणी१३ कहलाते हैं।
१. अपद्रावण हेतु देखें पिनि गा. ६२ के अनुवाद का दूसरा होगा-काय, वचन और मन से तथा देह, आयु और टिप्पण।
इंद्रिय' से पातन-च्यावन करना त्रिपातन है (मवृप. ३७)। २. सामित्ते अवयाणे (अ, स)।
७. करण अर्थात् साधन की दृष्टि से काय, वचन और ३. उ (स, जीभा)।
मन-इन तीन करणों से अतिपात करना त्रिपातन है। ४. करणे य (ला, ब, स), करणम्मि (जीभा ११०२)। ८. तु (जीभा ११०३), पिंडनियुक्ति की ६२ वीं गाथा की ५. षष्ठी तत्पुरुष समास में काय, वचन और मन का पातन व्याख्या में तीन भाष्य गाथाएं (पिभा १६-१८) हैं। अर्थात् विनाश। यह परिपूर्ण गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य ९. तत्थ अणंता (क, ब)। और तिर्यञ्चों की दृष्टि से जानना चाहिए। एकेन्द्रियों के १०. x (स), पिंडनियुक्ति की ६४ वीं गाथा की व्याख्या में केवल काय का, विकलेन्द्रिय एवं सम्मूर्च्छिम तिर्यञ्च तीन भाष्य गाथाएं (पिभा १९-२१) हैं। और मनुष्यों के काय और वचन का अतिपात जानना ११. कंडक का अर्थ है अंगुल मात्र क्षेत्र का असंख्येयभाग चाहिए। देह, आयु और इंद्रिय का अतिपात सभी गत प्रदेश राशि प्रमाण संख्या। कंडक एवं संयमस्थानक तिर्यञ्च और मनुष्यों पर घटित होता है। इनमें की व्याख्या हेतु देखें श्री भिक्षआगम विषयकोश भागभी एकेन्द्रिय की दृष्टि से औदारिक देह, आयु की २ पृ. ३४१, ३४२। अपेक्षा से तिर्यग आयु तथा इंद्रिय की अपेक्षा से स्पर्श १२. उ ताणि (क)। इंद्रिय जानना चाहिए। द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन- १३. मवृ प. ४१; चासङ्खयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्
इन दो इंद्रियों का समावेश होता है (मवृ प. ३७)। स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते-असंख्येय लोकाकाश६. अपादान-पंचमी तत्पुरुष की अपेक्षा से त्रिपात का निरुक्त प्रदेश प्रमाण षट्स्थानक संयमश्रेणी कहलाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org