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पिंडनियुक्ति
६. तुल्ले वि अभिप्पाए, समयपसिद्धं न गिण्हते लोगो।
जं पुण लोगपसिद्धं, तं सामइया उवचरंति॥६॥ तुल्य अभिप्राय होने पर भी समयप्रसिद्ध नाम को सामान्य लोग स्वीकृत नहीं करते लेकिन जो लोकप्रसिद्ध नाम हैं, उनका प्रयोग सामयिक (समयप्रसिद्ध) भी करते हैं। ७. एक्को उ असब्भावे, तिण्हं ठवणा उ होति सब्भावे।
चित्तेसु असब्भावे, 'दारुय-लेप्पोवले' सितरो॥७॥ एक अक्ष, वराटक या अंगुलीयक को पिंड रूप में स्थापित करना असद्भाव विषयक स्थापना है।' तीन अक्ष, तीन वराटक या तीन अंगुलीयक को एक स्थान पर संश्लिष्ट करके पिंड रूप में रखना सद्भाव स्थापना है। चित्रकर्म में भी एक बिन्दु से पिंड स्थापना करना असद्भाव स्थापना है। अनेक बिन्दुओं से पिंड रूप में स्थापित करना सद्भाव स्थापना है। काष्ठ और लेप्य उपल में पिण्डाकृति बनाना सद्भाव स्थापना है।
पायस्स पडोयारों', पत्तगवज्जो या पायनिज्जोगो। दोन्नि निसिज्जाओ पुण, अब्जिंतर-बाहिरा चेव॥ ८॥ संथारुत्तरचोलग, पट्टा तिन्नि उ हवंति नातव्वा।
मुहपोत्तिय त्ति पोत्ती', एगनिसेज्जं च रयहरणं॥ ९॥ १०. एते 'न उ. वीसामे, पतिदिणमुवओगतो य जतणाए।
संकामिऊण धोवेति', छप्पइया तत्थ विहिणा उ॥१०॥ पात्र का उपकरण, पात्रवर्ज, पात्रनिर्योग, रजोहरण की बाह्य और आभ्यन्तर-दो निषद्याएं, तीन पट्ट-संस्तारक पट्ट, उत्तरपट्ट और चोलपट्ट, पोत्ति का अर्थ है-मुखपोत्ति, मुखवस्त्रिका, एक निषद्या से युक्त रजोहरण-इन सब उपधियों का प्रतिदिन यतनापूर्वक उपयोग होने से विश्रमणा करने की आवश्यकता नहीं है। जहां षट्पदिकाएं हों, उनको अन्यत्र संक्रमित करके विधिपूर्वक इन उपकरणों को धोना चाहिए। ११. धोवत्थं तिन्नि दिणे ९, उवरि पाउणति 'तह य१२ आसन्नं।
धारेइ तिन्नि दियहे, एगदिणं उवरि लंबतं३ ॥११॥ वस्त्र धोने के लिए साधु तीन दिन तक प्रावरण को ऊपर ओढ़ता है फिर तीन दिन पास में स्थापित
१. लेवोवले (स, अ)।
७. पुत्ती (क)। २.पिनि गा.६ की व्याख्या में एक भाष्यगाथा (पिभा ७) है। ८. उन (मु)। ३. एक अक्ष, वराटक या अंगुलीयक में पिण्डाकृति न बनने ९. धोवंति (अ.म), धोविज्ज (क), धोवेति (स)।
से वह असद्भाव स्थापना है। यद्यपि अक्ष में परमाणुओं १०. भाष्य गा.११ में विश्रमणा विधि का उल्लेख है। विस्तार का संघात है, इस दृष्टि से पिण्ड है पर वहां व्यवहार में हेतु देखें पिनि २२/२ का अनुवाद एवं टिप्पण। पिण्ड की आकृति नहीं बनती है (मवृ प. ७)। ११. दिणाणि (क)। ४. 'यारं (स, बी)।
१२. तहियं (क)। ५. उ (क)।
१३. पिनि गा. २२ की व्याख्या में चार भाष्यगाथाएं (पिभा ६. मुहपुत्ती (क)।
८-११) हैं।
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