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पिंडनियुक्ति
५७/१. जोतिस-तणोसहीणं, मेघ'-रिणकराण उग्गमोरे दव्वे।
सो पुण जत्तो य जया, जहा य दव्वुग्गमो वच्चो ॥ ८७ ॥ ५७/२ वासघरे' अणुजत्ता, अत्थाणी जोग्ग किड्डकाले य।
घडग-सरावेसु कता, उ मोदगा लड्डगपियस्स ॥ ८८ ॥ ५७/३. जोग्गाऽजिण्णे' मारुतनिसग्ग तिसमुत्थतो. ऽसुइसमुत्थो।
आहारुग्गमचिंता, असुइ त्ति दुहा मलप्पभवो ॥ ८९॥ ५७/४. तस्सेवं वेरग्गुग्गमेण९ सम्मत्त-नाण-चरणाणं।
जुगवं कम्मावगमो१२, केवलनाणुग्गमो जातो॥९० ॥ ५७/५. दंसण-नाणप्पभवं, चरणं 'सुद्धेसु तेसु'१३ तस्सुद्धी।
चरणेण४ कम्मसुद्धी, उग्गमसुद्धी५ चरणसुद्धी१६ ॥ ९१॥ ५८. आहाकम्मुद्देसिय, पूतीकम्मे७ य मीसजाते य।
ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीत पामिच्चे ॥ ९२ ॥
१. मेह (ला, ब, मु, क)।
कहकर प्रस्तुत प्रसंग में चारित्र उद्गम के अधिकार २. मुग्गमो (मु)।
का निर्देश करते हैं फिर ५७/१ में ग्रंथकार पुनः ३. जुत्तो (अ, ब, ला)।
द्रव्य उद्गम की बात नहीं कहते। ५७ वीं गाथा ४. वुच्छो (स), तु. जीभा १०८९।
में नियुक्तिकार ने 'दव्वम्मि लड्डुगादी' निर्देश से ५. वासहरा (मु)।
'लड्डुकप्रियकुमार' की कथा का संकेत किया है। ६. “जुत्ता, (अ, बी), “जत्तो (स)।
५७/२-४ इन तीन गाथाओं में इसी कथा का ७. किद्द (ला, ब)।
विस्तार है अतः ये गाथाएं भी भाष्य की होनी ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३। चाहिए। ५७/५ गाथा भी प्रासंगिक रूप से भाष्यकार ९. अजिण्ण (मु)।
द्वारा निर्मित प्रतीत होती है क्योंकि गाथा ५७ के १०. तिसमुब्भवो (अ, ब)।
अंतिम चरण 'चरित्तुग्गमेणित्थ अहिगारो' उल्लेख ११. वेरग्ग' (बी), गुगमण (ब, ला)।
के बाद उद्गम के १६ दोषों का उल्लेख करने १२. कम्मुवगमो (अ), कमुवगमो (बी),
वाली गाथाओं का विषय की दृष्टि से सीधा सम्बन्ध कमुग्गमो वा (क, स)।
बैठता है। १३. सुद्धेहिं तहिं (अ, बी), सुद्धे तु तम्मि (जीभा १०९२)। १७. पूइयकम्मे (अ, बी)। १४. करणेण (अ, बी), धरणेण (ला), हरणेण (ब)। १८. प्राभृतिका-पूर्वं नपुंसकत्वेऽपि कप्रत्यये समानीते १५. "सिद्धा (ब, ला)।
सति स्त्रीत्वं (मवृ)। १६. ५७/१-५-ये पांचों गाथाएं प्रकाशित टीका में १९. निभा ३२५०, बृभा ४२७५, प्रसा ५६४, जीभा
निगा के क्रम में उल्लिखित हैं लेकिन ये पांचों १०९५, पिंप्र ३, तु. मूला ४२२, पंचा १३/५, गाथाएं भाष्य की होनी चाहिए। गाथा ५७ में ५८, ५९-ये दो गाथाएं स प्रति में नहीं हैं। नियुक्तिकार द्रव्य उद्गम और भाव उद्गम की बात
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