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पिंडनियुक्ति
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२३०. चुण्णे अंतद्धाणे, चाणक्के पादलेवणे समिए ।
मूलविवाहे दो दंडिणी उ आदाण परिसाडे ॥ ५०० ॥ २३१. जे विज्ज-मंतदोसा, ते च्चिय वसिकरणमादिचुण्णेहिं ।
एगमणेगपदोसंप, कुज्जा पत्थारओ वावि ॥ ५०१॥ २३१/१. सूभगदोभग्गकरा', 'जोगा आहारिमा'५ य इतरे य।
आघस-धूववासा'१०, पादपलेवाइणो इतरे ॥ ५०२ ॥ २३१/२. 'नदिकण्ह वेण्णदीवे'१२, पंचसया तावसाण निवसंति।
पव्वदिवसेसु कुलवति, पालेवुत्तारसक्कारो१३ ॥ ५०३ ॥ २३१/३. जणसावगाण खिंसण, समियक्खण१४ माइठाणलेवेणं।
सावगपयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए'५ ।। ५०४ ॥ २३१/४. पडिलाभित वच्चंता, निबुड्ड६ नदिकूलमिलण७ समियाए।
विम्हय८ पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहा य९॥ ५०५ ॥ २३१/५. अवि य कुमारखयं, जोणी विवरिट्ठा निवेसणं वावि।
गम्मपए पायं वा, जो कुव्वति मूलकम्मं तु ॥ १. कथा के विस्तार हेतु देखें भाष्यगाथा ३५-३७ चाहिए। २३१/५ गाथा केवल अ और बी प्रति में तथा परि. ३, कथा सं. ४२।
मिलती है लेकिन यह चालू विषयवस्तु की दृष्टि २. "वणं (स)।
से मूलकर्म की व्याख्या प्रस्तुत करती है। संभव ३. समिओ (अ, स), जोगे (बी, मु), जोगो (क)। है कुछ लिपिकारों द्वारा यह गाथा छूट गई हो। ४. पडिसाडे (ला, ब), गाथाओं के क्रम में निभा में १२. नइकण्हिबिन्न (बी, क), नइ कण्ह बिन्न (मु)। यह गाथा नहीं है।
१३. पादलेवुत्तार' (निभा ४४७०), पालेवे लिंप पाए तु ५. सूत्रे च तृतीया सप्तम्यर्थे ।
(जीभा १४६१)। ६. एगणेग (ब), "पओसे (अ, बी)।
१४. समयत्थण (ला, ब), समियत्थण (स)। ७. जीभा १४५७।
१५. धोवे (क, स), निभा ४४७१। ८. 'गदुब्भग्ग” (मु, बी), ‘गदोहग्ग' (ला, अ), १६. निब्बुड (मु, बी)। 'गदूभग' (क)।
१७. “लमिलिय (जीभा १४६६)। ९. जे जोगाऽऽहारिमे (निभा ४४६९), °आसिमा (क)। १८. विम्हिय (क, मु, जीभा)। १०. "वास धूवा (निभा), वासो (जीभा १४५९), ये १९. निभा ४४७२, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,
पानीयादिना सह घर्षयित्वा पीयन्ते ते आधर्षाः (मवृ)। कथा सं. ४३। ११. २३१/१-४ तथा ६ से ११-ये दस गाथाएं गा. २०. यह गाथा केवल अ और बी प्रति में मिलती है।
२३०वीं गाथा की व्याख्या रूप हैं। जब 'चुण्णे यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि इसमें अंतद्धाणे चाणक्के' इस पद की व्याख्या करने वाली 'मूलकर्म' का स्वरूप है। २३१/६, ७-इन दोनों एवं कथा से संबंधित गाथाओं के लिए टीकाकार गाथाओं में मूल कर्म से संबंधित कथा का उल्लेख ने 'भाष्यकृद्' उल्लेख किया है तो फिर पायलेवण, है अतः ये दोनों गाथाएं भी भाष्य की होनी जोग, मूल आदि द्वारों से संबंधित गाथा एवं कथा चाहिए। देखें टिप्पण २३१/१। को विस्तार देने वाली गाथाएं भी भाष्य की होनी
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