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पिंडनियुक्ति
२९५/४. आयंबिलपारणगे', छम्मास निरंतरं खमेऊणं ।
___ जइ न तरति छम्मासे, एगदिणूणं ततो कुण ॥ ६१६ ॥ २९५/५. एवं एक्केक्कदिणं', आयंबिलपारणं खवेऊणं ।
दिवसे दिवसे गिण्हउ", आयंबिलमेव निल्लेवं ॥ ६१७ ॥ २९५/६. जइ से न जोगहाणी , संपति 'एस्से व९ होति तो खमओ।
खमणंतरेण२ आयंबिलं तु नियतं तवं कुणउ१३ ॥ ६१८ ॥ २९५/७. मरहट्ठग१४ कोसलगा, सोवीरग कूरभोइणो५ मणुया।
जइ ते वि जवेंति१६ तहा, किं नाम जती न जावेंति ॥ ६१९ ॥ २९५/८. तिय८ सीतं समणाणं, तिय उण्ह गिहीण तेणऽणुण्णातं ।
तक्कादीणं गहणं, कट्टरमादीसु भइयव्वं ॥ ६२० ॥ २९५/९. आहार-उवधि सेज्जा,तिण्णि वि उण्हा गिहीण सीते वि।
तेण उ जीरति२० तेसिं, दुहओ उसिणेण आहारो॥ ६२१ ॥ २९५/१०. एयाई चिय तिन्नि वि, जतीण सीताइँ होंति गिम्हे वि।
तेणुवहम्मति अग्गी, तओ यार दोसा अजीरादी२२ ॥ ६२२ ।।
१. ‘णये (क)। २. तु खविऊणं (मु), तु खमिऊणं (स, क)। ३. 'णूणे (अ, बी, स), इक्कदिणूणे (क)। ४. कुणइ (ला, ब, क, स)। ५. “दिणे (अ, बी)। ६. भवे. (अ, ब, ला, बी), करेऊणं (क)। ७. गिण्हइ (ब, ला, स)। ८. "हाणिं (अ, बी), योगहानिः-प्रत्यपेक्षणादिरूप
संयमयोगभ्रंशो न भवति (मवृ)। ९. एमेव (ला, ब), एसेव (मु)। १०. भो (ब, ला)। ११.क्षपकः षण्मासाद्युपवासकर्ता (मवृ)। १२. णंतरे वि (क)। १३. कुणइ (ला, ब, क, मु, स)। १४. हेट्ठावणि (अ, ब, क, मु), टीकाकार ने हेट्ठावणि
पाठ की व्याख्या की है। १५. भोयणो (ब), भोईणो (मु)। १६.जवंति (क, अ)। १७. जावेति (अ, ला, ब), जति (मु)।
१८.तय (स)। १९. भईय' (स)। २०.जीरउ (क)। २१. उ (ब)। २२.२९५/१-१०-ये दसों गाथाएं प्रकाशित टीका में
निगा के क्रमांक में हैं लेकिन ये भाष्य की होनी चाहिए। पिण्डनियुक्ति में प्रायः नए द्वार की व्याख्या का प्रारंभ नियुक्तिकार ने किया है,जैसे शंकित, मेक्षित, निक्षिप्त आदि द्वार। लेकिन अलेप द्वार का प्रारंभ भाष्य गाथाओं से हुआ है, ऐसा संभव लगता है। नियुक्तिकार ने शंकित आदि दसों द्वारों की इतने विस्तार से कहीं चर्चा नहीं की है। दूसरी बात संक्षिप्त शैली होने के कारण निर्यक्तिकार चोदक और आचार्य के माध्यम से इतने प्रश्न और उत्तर भी प्रस्तुत नहीं करते हैं। अलेप द्वार का प्रारंभ चोदक की जिज्ञासा एवं आचार्य के उत्तर से हुआ है। ये गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। इनको नियुक्ति गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा गया है।
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