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पिंडनियुक्ति
५४.
५३/१ जितसत्तु देवि' चित्तसभ- पविसणं कणगपिट्ठपासणया।
दोहल' दुब्बल पुच्छा, कहणं आणादि पुरिसाणं ॥ ८० ॥ ५३/२ सीवण्णिसरिसमोदगकरणं सीवण्णिरुक्खहेढेसु ।
आगमण कुरंगाणं, पसत्थ-अपसत्थ उवमा उ ॥ ८१॥ वियमेत कुरंगाणं, जदा सीवण्णि सीदती ।
पुरा वि वाया वायंति, न उण पुंजकपुंजगा ॥८२ ॥ ५४/१. हत्थिग्गहणं गिम्हे, अरहट्टेहिं भरणं च सरसीणं ।
'अच्चुदगेण नलवणा'१२, आरूढा३ गजकुलागमणं ॥ ८३ ॥ वियमेतं५ गजकुलाणं, जदा रोहंति नलवणा। अन्नयावि 'झरंति दहा'१६, न य एवं बहुओदगा ॥८४ ॥ उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगट्ठियाणि१८ एताइं१९ ।
नाम ठवणा दविए, भावम्मि य उग्गमो होति ॥ ८५ ॥ ५७. दव्वम्मि० लड्डगादी, भावे तिविहुग्गमो मुणेयव्वो।
दंसण-नाण-चरित्ते, चरित्तुग्गमेणित्थ अहिगारो२१ ॥ ८६ ॥
१. देव (अ, ब, ला, बी)।
८. बिइमेयं (बी), वितियमेयं (स), विदितमेतद् २. कणगपट्ट' (स)।
(मवृ), छंद की दृष्टि से विइय का विइ पाठ ३. डोहल (क)।
हुआ है। ४. आणा य (मु, स, ओनि ४५०)।
९. सीवई (अ, बी), सीदई (ओनि ४५२), सीदति५. मोययठवणा (अ, बी)।
धातूनामनेकार्थत्वात् फलति (मवृ)। ६. हिढेसु (अ, क, बी)।
१०. वायो (ब, ला)। ७. ओनि ४५१, ५३/१, २-ये दोनों गाथाएं स्पष्ट रूप ११. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. १।
से भाष्य की प्रतीत होती हैं क्योंकि अन्य नियुक्तियों १२. 'दए सा नल' (अ, क, ब)। की रचना शैली में नियुक्तिकार कथा का संकेत मात्र १३. अइरूढा (अ, ला), अईरूढा (स), करते हैं। ५३ वी गाथा में नियुक्तिकार ने 'दव्वम्मि अभिरूढा (ओनि ४५३) । कुरंग-गया' उल्लेख में मृग एवं हाथी से संबंधित १४. यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए, देखें टिप्पण ५३/१, २। कथा का संकेत कर दिया है अतः वे पुनः विस्तार १५. वीयमेतं (अ)। से कथा का उल्लेख नहीं करते। गा. ५४ एवं ५५ १६. दहति झरणे (ला), झरंति सरा (क, ओनि ४५४)। के लिए टीका में 'नियुक्तिकारो गाथां पठति' का १७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३,कथा सं. २। संकेत है। संभव है टीकाकार के समय तक ये १८. “याइं (अ, क, ला)। दोनों गाथाएं निगा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं। १९. एयाई (स)। टीकाकार के उल्लेख का सम्मान करते हुए इन २०. अहवा वि (जीभा १०९०)। दोनों गाथाओं को निगा के क्रमांक में रखा है। २१. अहीगारो (जीभा)।
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