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पिंडनियुक्ति
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८०/५. तम्हा न एस दोसो, संभवते कम्मलक्खणविहूणो।
तं पि य हु अतिघिणिल्ला, वज्जेमाणा अदोसिल्ला ॥ १७६ ॥ ८१. परपक्खो उ गिहत्था, समणा समणी य' होति उ सपक्खो।
फासुकडं रद्धं वा, निट्टितमितरं कडं सव्वं ॥ १७७ ॥ ८१/१. तस्स 'कडनिद्रुितम्मि य", अन्नस्स कडम्मि निद्विते तस्स।
चउभंगो एत्थ भवे, चरिमदुगे होति कप्पं तु ॥ १७८ ॥ चउरो अतिक्कम-वतिक्कमे य अतियार तह अणायारे।
निद्दरिसणं चउण्ह वि, आहाकम्मे निमंतणया ॥ १७९ ।। ८२/१. साली-घत-गुल-गोरस, नवेसु वल्लीफलेसु जातेसुं।
दाणे अभिणवसड्ढे, 'आहायकते निमंतणया ॥ १८० ॥ ८२/२. आहाकम्मग्गहणे, अइक्कमादीसु वट्टते चउसु ।
नेउरहारिग हत्थी, चउ-तिग-दुग-एगचलणेणं ॥ १८१ ॥ ८२/३. आहाकम्मामंतण", पडिसुणमाणे अइक्कमो होति।
पदभेदादि वइक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ १८२ ॥ दारं ॥ ८३. आणादिणो१२ य दोसा, गहणे जं भणियमह इमे ते उ।
आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तविराधणा चेव ॥ १८३ ॥ ८३/१. आणं सव्वजिणाणं, गेण्हंतो तं अइक्कमति लुद्धो।
आणं च अतिक्कंतो, कस्सादेसा कुणति सेसं१३? ॥ १८४ ॥
१. 'वई (क), तु संभवे (जीभा ११७२)।
इन गाथाओं के भाष्यगत होने के निम्न कारण हैं२. अत्र हेतो प्रथमा (मवृ), हूणा (ला, ब)।
• गा. ८२/३ अनेक ग्रंथों में मिलती है अतः ३. उ (अ, बी, मु)।
ग्रंथकार ने चतुर्थ चरण में अतिक्रम का संकेत ४. तु. जीभा ११५६।
मात्र कर दिया है। ५. 'यम्मी (मु)।
• गा. ८२ का चतुर्थ पद और ८२/३ का प्रथम ६. तु. जीभा ११५७, ब, क, ला और स प्रति में यह पद शब्दों की दृष्टि से लगभग समान है, ___ गाथा नहीं है। यह गाथा भाष्य की होनी चाहिए। नियुक्तिकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करते हैं। ७. तु. जीभा ११७४।
८२ वी गाथा विषय की दृष्टि से सीधी ८३ वीं ८. आहाकम्मे निमंतेइ (जीभा ११७७), आहायकयं गाथा से जुड़ती है। ८२ के चतुर्थ पद में
निमंतेइ (स, क), तु. निभा २६६२, तु. बृभा ५३४१ । ग्रंथकार ने अधूरी बात कही है .अत: ८३ वीं ९. "चलणाणं (ला, ब), कथा के विस्तार हेतु देखें
गाथा में आधाकर्म का निमंत्रण स्वीकार करने परि. ३,कथा सं. १०।।
के दोषों का उल्लेख है। १०. 'कम्म निमंतण (मु, क)।
१२. आणायणो (स)। ११. व्यभा ४३, ८२/१-३-ये तीनों गाथाएं ८२ वीं गाथा १३.जीभा ११८३।
की व्याख्या रूप हैं अत: भाष्य की होनी चाहिए।
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